देवी देवताओ के 1000 नामो को सहस्रनाम (Sahastranam) कहा जाता हैं। ऐसा माना जाता है की किसी भी देवी देवता के 1000 नामो अर्थात सहस्रनाम का पाठ करने से वो देवी देवता स्वयं अपने भक्त की रक्षा करते है। गोपाल (Gopal) नाम श्री कृष्ण के कई अनेक नामो में से एक सुप्रषिध नाम है। गोपाल का अर्थ है गायों का पालन करने वाला। ऐसी मान्यता है कि भगवान श्री कृष्ण का गोपाल नाम बहुत ही अद्भुत चमत्कारी एवं शुभ फल प्रदान करने वाला है। हमारे ऋषि-मुनियों नें हमेशा गोपाल नाम से ही श्रीकृष्ण के हजार नामों की स्तुति की है। जिसे शास्त्रों में गोपाल सहस्त्रनाम (Gopal Sahastranam) से जाना जाता है।
– प्रात:काल स्नानादि नित्य क्रियाओं से निवृत्त होकर भगवान श्री कृष्ण (Shree Krishna) की गोपाल (Gopal) स्वरूप की तस्वीर या मूर्ति को पूजास्थान पर रखें।
– पाठ से पहले भगवान श्री कृष्ण का आवाहन करें और उन्हें सर्वप्रथम आसन अर्पित करें।
– पैर धोने के लिए जल समर्पित करें, आचमन, स्नान, तिलक, धूप-दीप, और प्रसाद अर्पित करें।
– इसके बाद, – अंत में, भक्ति-युक्त चित्त से श्री गोपाल सहस्रनाम स्तोत्र का पाठ करें और नमस्कार करें
– श्री कृष्ण जन्माष्टमी (Shree Krishna Janmastmi) पर इस पाठ का फल कई गुना बढ़ जाता है, जिससे साधक को आश्चर्यजनक लाभ होता है।
आइये अब श्री गोपाल सहस्त्रनाम पाठ का आराम्भ करते है मूल पाठ से पहले देवी पारवती और महादेव के उवाचो का पठन किया जाता है और फिर विनियोग, करन्यास, हृदयादिन्यास के बाद ध्यान लगा कर श्री गोपाल सहस्त्रनाम पाठ को आरम्भ किया जाता है जिनका वर्णन इस प्रकार है:
कैलास शिखरे रम्ये गौरी पृच्छति शङ्करं।
ब्रह्माण्डाखिलनाथस्त्वं सृष्टिसंहारकारकः ।। 1
पार्वती बोलीं – एक बार मनोरम कैलास पर्वत के शिखर पर विराजमान भगवान शंकर जी से भगवती गौरी पूछने लगीं की आप समग्र ब्रह्माण्ड के एकमात्र नाथ हैं और सृष्टि तथा संहार करने वाले हैं ।
त्वमेव पूज्यसे लोकैर्ब्रह्मविष्णुसुरादिभिः।
नित्यं पठसि देवेश कस्य स्तोत्रं महेश्वर ।। 2
हे महेश्वर ! हे देवेश ! जब सभी लोग एवं ब्रह्मा , विष्णु आदि देवगण भी आपकी आराधना करते हैं , तब आपका नित्य किसका स्तवन करते हैं ? 2
आश्चर्यमिदमत्यन्तं जायते मम शङ्कर।
तत्प्राणेश महाप्राज्ञ संशयं छिन्धि शङ्कर।। 3
हे शङ्कर ! मुझे इसमें महान आश्चर्य हो रहा है ; अतः हे प्राणेश ! हे महाप्राज्ञ ! हे शिव ! मेरे संदेह का निवारण कीजिये । 3
धन्यासि कृतपुण्यासी पार्वति प्राणवल्लभे ।
रहस्यातिरहस्यं च यतपृच्छसि वरानने ।। 4
स्त्री स्वभावान्महादेवि पुनस्त्वं परि पृच्छसि ।
गोपनीयं गोपनीयं गोपनीयं प्रयत्नतः ।। 5
श्री महादेव जी बोले – हे पार्वति ! हे प्राणवल्लभे ! तुम धन्य हो , कृतार्थ हो जो कि हे वरानने ! तुम इस रहस्य को पूछ रही हो । हे महादेवि ! तुम स्त्री स्वभाव से ही बार – बार मुझसे इस रहस्य को पूछ रही हो ; इस गूढ़ रहस्य को प्रयत्नपूर्वक अति गोपनीय रखना चाहिए । 4-5
दत्ते च सिद्धिहानिः स्यात्तस्माद्यत्नेन गोपयेत ।
इदं रहस्यं परमं पुरुषार्थ प्रदायकं ।। 6
यह परम रहस्य धर्म – अर्थ आदि पुरुषार्थों को देने वाला है । इसे किसी अनाधिकारी व्यक्ति को देने से सिद्धि कि हानि होती है , इसलिए प्रयत्न पूर्वक गोपनीय रखना चाहिए । 6
धन रत्नौघ माणिक्य तुरङ्ग मग जादिकम ।
ददाति स्मरणा देव महा मोक्ष प्रदायकं ।। 7
तत्तेहं संप्रवक्ष्यामि शृणुष्वावहिता प्रिये ।
योसौ निरञ्जनो देवश्चित्स्वरूपी जनार्दनः ।। 8
संसार सागरोत्तारकारणाय सदा नृणाम ।
श्रीरंगादिकरूपेण त्रैलोक्यं व्याप्य तिष्ठति ।। 9
यह रहस्य स्मरण मात्र से ही धन समूह , माणिक्य , हाथी , घोड़े आदि वस्तुओं को दे देता है और महान मोक्ष प्रदान करने वाला है । हे प्रिये ! उसी रहस्य को मैं तुम्हें बताऊंगा , एकाग्रचित्त हो कर सुनो । जो चिदरूप निर्विकार भगवान् जनार्दन हैं , वे मनुष्यों को संसार सागर से पार उतारने के लिए सदा श्री रंगादि रूपों में तीनो लोकों को व्याप्त करके स्थित रहते हैं । (7- 9)
ततो लोका महा मूढ़ा विष्णु भक्ति विवर्जिताः।
निश्चयं नाधि गच्छन्ति पुनर्नारायणो हरिः ।। 10
निरञ्जनो निराकारो भक्तानां प्रीति कामदः ।
वृन्दावन विहाराय गोपालं रूप मुद्वहन ।। 11
मुरलीवादनाधारी राधायै प्रीति मावहन ।
अंशांशेभ्यः समुन्मील्य पूर्ण रूप कलायुतः ।। 12
तथापि भगवान् विष्णु की भक्ति से रहित मूर्ख लोग उन पर दृढ विश्वास नहीं करते । उन निर्विकार , निराकार तथा भक्तों के प्रिय मनोरथ पूर्ण करने वाले नारायण श्री हरि ने ही वृन्दावन में विहार करने के लिए गोपाल रूप धारण किया , श्री राधिका जी की प्रसन्नता के लिए ही वेणु वादन का आश्रय लिया और अपने अंशांशों से समन्वित हो कर षोडश कलात्मक पूर्ण रूप धारण किया । (10- 12)
श्री कृष्ण चंद्रो भगवान् नन्द गोप वरोद्यतः ।
धरणी रूपिणी माता यशोदा नन्द दायिनी ।। 13
श्री कृष्ण चंद्र जी साक्षात भगवान् थे । गोपों में श्रेष्ठ नन्द जी उनके पिता थे और आनंद देने वाली साक्षात पृथ्वी स्वरूपा यशोदा उनकी माता थीं। 13
द्वाभ्यां प्रयाचितो नाथो देवक्यां वसुदेवतः ।
ब्रह्मणाभ्यर्थितो देवो देवैरपि सुरेश्वरि ।। 14
हे सुरेश्वरि ! [ कृष्णावतार के पूर्व ] देवकी और वासुदेव – इन दोनों ने परात्पर प्रभु से प्रार्थना की थी की आपके सदृश पुत्र हो । ब्रह्मा और अन्य देवताओं ने भी [ पृथ्वी का भार उतारने के लिए ] भगवान् से प्रार्थना की थी कि वासुदेव जी के द्वारा देवकी के गर्भ से आप अवतार ग्रहण करें । 14
जातोवन्यां मुकुन्दोपि मुरली वेदरेचिका ।
तया सार्द्धं वचः कृत्वा ततो जातो महीतले ।। 15
तब वे मुकुंद भी पूर्व में दिए गए वचन का पालन करने के लिए पृथ्वी पर अवतरित हुए थे । मुरली की ध्वनि का विस्तार करने वाली जो राधिका हैं , उन्हीं के साथ वे नारायण पृथ्वी ताल पर अवतरित हुए । 15
संसार सार सर्वस्वं श्यामलं महदुज्ज्वलं ।
एतज्ज्योतिरहं वेद्यं चिन्तयामि सनातनम ।। 16
[ हे देवी ] , संसार सार के सर्वस्व , श्याम वर्ण , अत्यंत उज्ज्वल कांति वाले , जानने योग्य तथा शाश्वत उसी ज्योति का मैं चिंतन करता हूँ ।। 16
गौर तेजो विना यस्तु श्याम तेजः समर्चयेत ।
जपेद्वा ध्यायते वापि स भवेत्पातकी शिवे ।। 17
स ब्रह्महा सुरापी च स्वर्णस्तेयी च पञ्चमः ।
एतैर्दोषैर्विलिप्येत तेजोभेदान्महेश्वरी ।। 18
हे शिवे ! जो मनुष्य गौरतेज ( श्री राधिका ) को छोड़कर श्याम तेज ( श्री कृष्ण ) का पूजन , जप या ध्यान करता है अर्थात युगल उपासना की मर्यादा को भंग करता है , वह पातकी होता है । वह ब्रह्म हत्यारा , सुरापान करने वाला , स्वर्ण की चोरी करने वाला , [ गुरुतल्पगामी ] तथा इन सबसे संसर्ग रखने वाला पांचवा महापातकी होता है । हे माहेश्वरी ! इन दोनों में तेज भेद करने से वह व्यक्ति इन दोषों का भागी होता है । (17- 18)
तस्माज्ज्योतिर्भूदद्वेधा राधामाधव रूपकम ।
तस्मादिदं महादेवि गोपालेनैव भाषितम ।। 19
अतः हे महादेवि ! ‘युगल – उपासना के लिए मेरी ही ज्योति राधा – माधव के रूप में दो प्रकार की हो गयी’ – ऐसा स्वयं गोपाल ने कहा है ।19
दुर्वाससो मुनेर्मोहे कार्तिक्यां रास मंडले ।
ततः पृष्टवती राधा संदेहं भेदमात्मनः।। 20
कार्तिक पूर्णिमा को [ वृन्दावन धाम में ] रासमण्डल का अवलोकन कर जब महर्षि दुर्वासा जी को मोह व्याप्त हो गया था , उस समय श्री राधिका जी को अपने और श्रीकृष्ण में भेद होने का संदेह उत्पन्न हुआ और उन्होंने भगवान श्री कृष्ण से पूछा था ।।20
निरंजनात्समुत्पन्नं मयाधीतं जगन्मयी ।
श्री कृष्णेन ततः प्रोक्तं राधायै नारदाय च ।।21
ततो नारदतः सर्वं विरला वैष्णवास्तथा ।
कलौ जानन्ति देवेशि गोपनीयं प्रयत्नतः ।। 22
[ हे भगवन! ] मुझे ऐसा विदित है कि निर्विकार ब्रह्म से उत्पन्न यह सम्पूर्ण जगत मुझमें अधिष्ठित है । तब भगवान् श्री कृष्ण ने राधिका जी तथा देवर्षि नारद जी को यह रहस्य बताया । तदनन्तर उन नारद जी से अन्यायन्य वैष्णवों ने इस रहस्य को जाना और कलयुग में अन्य लोग भी इसे जान गए । हे देवेशि ! इस रहस्य को प्रयत्नपूर्वक गुप्त रखना चाहिए ।। (21-22)
शठाय कृपणायाथ दाम्भिकाय सुरेश्वरि ।
ब्रह्म हत्या मवाप्नोति तस्माद्यत्नेन गोपयेत ।। 23
हे सुरेश्वरि! जो इस रहस्य को दुष्ट , कृपण अथवा पाखंडी व्यक्ति को बताता है ; वह ब्रह्म हत्या के समान पाप का भोगी होता है ,अतएव प्रयत्नपूर्वक इसे गोपनीय रखना चाहिए ।। 23
अस्य श्रीगोपालसहस्रनामस्तोत्रमंत्रस्य श्री नारद ऋषिः , अनुष्टुप छन्दः , श्रीगोपालो देवता , कामो बीजं ,
माया शक्तिः , चन्द्रः कीलकम , श्रीकृष्णचंद्रभक्तिरूपफलप्राप्तये श्रीगोपालसहस्रनापजापे विनियोगः ।।
इस श्रीगोपाल सहस्रनाम स्तोत्र मंत्र के ऋषि नारद जी हैं , छंद अनुष्टुप हैं , श्रीगोपालजी इसके देवता हैं , काम इसका बीज है , माया इसकी शक्ति है और चंद्र इसका कीलक है । भगवन श्री कृष्ण चंद्र के भक्ति रुपी फल की प्राप्ति के लिए श्री गोपाल सहस्र नाम के जप में इसका विनियोग है ।
अथवा
ॐ ऐं क्लीं बीजं, श्रीं ह्रीं शक्तिः , श्री वृन्दावन निवासः कीलकम ,
श्री राधाप्रियं परं ब्रह्मेति मंत्रः , धर्म चतुर्विध पुरुषार्थ सिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः ।
ॐ ऐं क्लीं इसका बीज , श्रीं ह्रीं शक्ति , श्री वृन्दावन निवास कीलक और श्री राधाप्रिय परब्रह्म मंत्र है । धर्मादि चतुर्विध पुरुषार्थ सिद्धि के लिए जप में इसका विनियोग है ।
ॐ क्लां अंगुष्ठाभ्यां नमः – कहकर दोनों अंगूठों का स्पर्श करें ।
ॐ क्लीं तर्जनीभ्यां नमः – कहकर दोनों तर्जनियों का स्पर्श करें ।
ॐ क्लूं मध्यमाभ्यां नमः – कहकर दोनों मध्यमाओं का स्पर्श करें ।
ॐ क्लैम अनाभिकाभ्यां नमः – कहकर दोनों अनामिकाओं का स्पर्श करें ।
ॐ क्लौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः – कहकर दोनों कनिष्ठिकाओं का स्पर्श करें ।
ॐ क्लः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः – कहकर दोनों करतलों का स्पर्श करें ।
ॐ क्लां हृदयाय नमः – कहकर ह्रदय का स्पर्श करे ।
ॐ क्लीं शिरसे स्वाहा – कहकर सिर का स्पर्श करे ।
ॐ क्लूं शिखायै वषट – कहकर शिखा का स्पर्श करे ।
ॐ क्लैम कवचाय हुम् – कहकर भुजाओं का स्पर्श करें ।
ॐ क्लौं नेत्रत्रयाय वौषट – कहकर तीनों नेत्रों का स्पर्श करें ।
ॐ क्लः अस्त्राय फट – कहकर चारों दिशाओं में चुटकी बजाकर हथेली पर दो अँगुलियों से आघात करें ।
कस्तूरीतिलकं ललाटपटले वक्ष:स्थले कौस्तुभं
नासाग्रे वरमौत्तिकं करतले वेणुं करे कंकणम ।
सर्वाड़्गे हरिचन्दनं सुललितं कण्ठे च मुक्तावलि –
र्गोपस्रीपरिवेष्टितो विजयते गोपालचूडामणि: ।।1।।
जिनके मस्तक पर कस्तूरी का तिलक है , वक्षः स्थल में कौस्तुभ मणि है , नासिकाग्र में अति सुन्दर मोती का आभूषण ( बुलाक ) है , करतल में वंशी है , हाथों में कंकण है , सम्पूर्ण शरीर में हरि चन्दन का लेप हुआ है और कंठ में मनोहर मोतियों की माला है , व्रजांगनाओं से घिरे हुए ऐसे गोपाल चूणामणि की बलिहारी है ।
फुल्लेन्दीवरकान्तिमिन्दुवदनं बर्हावतंसप्रियं
श्रीवत्साड़्कमुदारकौस्तुभधरं पीताम्बरं सुन्दरम ।
गोपीनां नयनोत्पलार्चिततनुं गोगोपसंघावृतं
गोविन्दं कलवेणुवादनपरं दिव्याड़्गभूषं भजे ।।2।।
प्रफुल्ल नीलकमल के समान जिनकी श्याम मनोहर कांति है , मुखमण्डल की चारुता चंद्र बिम्ब को भी विलज्जित करती है , मोरपंख का मुकुट जिन्हें अधिक प्रिय है , जिनका वक्ष स्वर्णमयी श्री वत्स रेखा से समलंकृत है , जो अत्यंत तेजस्विनी कौस्तुभ मणि धारण करते हैं और रेशमी पीताम्बर पहने हुए हैं , गोपसुंदरियों के नयनारविन्द जिनके श्री अंगों की सतत अर्चना करते हैं , गौओं तथा गोपकिशोरों के संघ जिन्हें घेरकर खड़े हैं तथा जो दिव्य अंगभूषा से विभूषित हो मधुराति मधुर वेणुवादन में संलग्न हैं , उन परम सुन्दर गोविन्द का मैं भजन करता हूँ।
इति ध्यानम।।
ऊँ क्लीं देव: कामदेव: कामबीजशिरोमणि: ।
श्रीगोपालको महीपाल: सर्वव्र्दान्तपरग: ।।1।।
1. ऊँ क्लीं देव:- भगवान् श्री कृष्ण सच्चिदानंद स्वरूप
2. कामदेव:- कामदेवस्वरूप
3. कामबीजशिरोमणि:- काम बीज के अधिष्ठाता
4. श्री गोपालः – गौ और लक्ष्मी के पालक
5. महीपालः – पृथ्वी की रक्षा करने वाले
6. सर्ववेदाङ्गपारगः- अंगों सहित सम्पूर्ण वेदों के ज्ञाता ।। 1 ।।
धरणीपालको धन्य: पुण्डरीक: सनातन: ।
गोपतिर्भूपति: शास्ता प्रहर्ता विश्वतोमुख: ।।2।।
7. धरणी पालकः- पृथ्वी का पालन करने वाले
8. धन्यः – सभी प्रकार के ऐश्वर्यों से परिपूर्ण
9 . पुण्डरीकः – कमल के समान शोभा वाले
10. सनातनः – शाश्वत , सदा रहने वाले
11. गोपतिः – इन्द्रियों के स्वामी
12. भूपतिः – पृथ्वी के स्वामी
13. शास्ता – सभी पर शासन करने वाले
14. प्रहर्ता – दुष्टों का संहार करने वाले
15 . विश्वतोमुखः – सभी ओर मुख वाले ।। 2 ।।
आदिकर्ता महाकर्ता महाकाल: प्रतापवान ।
जगज्जीवो जगद्धाता जगद्भर्ता जगद्वसु: ।।3।।
16 . आदिकर्ता – सृष्टि आदि के निर्माता
17. महाकर्ता – जगत के प्रधान सृष्टा
18. महाकालः- प्रधान संहारकर्ता
19. प्रतापवान – तेजस्वी
20. जगज्जीवः- विश्व के जीवन स्वरूप
21. जगद्धाता : –जगत की रचना करने वाले
22. जगदभर्ता : – जगत का भरण – पोषण करने वाले
23. जगद्वसु:- जगत के धन स्वरूप
मत्स्यो भीम: कुहूभर्ता हर्ता वाराहमूर्तिमान ।
नारायणो ह्रषीकेशो गोविन्दो गरुडध्वज: ।।4।।
२४. मतस्यः- मत्स्य का अवतार लेने वाले
२५. भीमः – भयंकर रूप धारण करने वाले
२६. कुहूभर्ता- अमावस्या की अधिष्ठात्री देवी के स्वामी
27. हर्ता- भक्तों के दुःखों का हरण करने वाले
28. वाराहमूर्तिमान- वराह के रूप में अवतार लेने वाले
29. नारायणः – जल में शयन करने वाले
30. हृषीकेशः – इन्द्रियों के स्वामी
31. गोविन्दः- गौओं की रक्षा करने वाले
32. गरुडध्वज:- गरुड से चिह्नित ध्वजा वाले
गोकुलेन्द्रो महाचन्द्र: शर्वरीप्रियकारक: ।
कमलामुखलोलाक्ष: पुण्डरीक शुभावह: ।।5।।
33 . गोकुलेन्द्रः – व्रजमण्डल के स्वामी
34 .महाचंद्रः – चन्द्रमा को भी प्रकाशित करने वाले
35 . शर्वरीप्रियकारक:- गोपांगनाओं को सुख प्रदान करने वाले
36 . कमलामुखलोलाक्ष: – लक्ष्मी के मुख को देखने के लिए लालायित नेत्रों वाले
37 . पुण्डरीकशुभावह:- कमल के समान मंगलकारी
दुर्वासा: कपीलो भौम: सिन्धुसागरसड़्गम: ।
गोविन्दो गोपतिर्गोत्र: कालिन्दीप्रेमपूरक: ।।6।।
38 . दुर्वासा:- दुर्वासा के रूप में अवतीर्ण
39 . कपिलः :- सांख्य शास्त्र के प्रवर्तन हेतु मुनि के रूप में अवतार लेने वाले
40 . भौमः – प्रकाशमान
41 . सिन्धुसागरसङ्गमः- सिंधु नामक नद तथा समुद्र के संगम पर विहार करने वाले
42 . गोविन्दः – इन्द्रियों की रक्षा करने वाले
43 . गोपतिः – गौओं के स्वामी
44 . गोत्रः – गौओं की रक्षा करने वाले हैं
45 . कालिन्दीप्रेमपूरकः – यमुना को अपने प्रेम वारि से पूर्ण करने वाले
गोपस्वामी गोकुलेन्द्रो गोवर्धनवरप्रद: ।
नन्दादिगोकुलत्राता दाता दारिद्रयभंजन: ।।7।।
46 . गोपस्वामी – गोपजनों के स्वामी
47 . गोकुलेन्द्रः – सभी गोसमुदाय के स्वामी
48 . गोवर्धनवरप्रदः – गोवर्धन को वरदान देने वाले
49 . नन्दादिगोकुलत्राता – नन्द आदि गोपालों तथा गोवंश की रक्षा करने वाले
50 . दाता – अनंत दान देने वाले
51 . दारिद्रयभंजन:– दरिद्रता का नाश करने वाले
सर्वमंगलदाता च सर्वकामप्रदायक: ।
आदिकर्ता महीभर्ता सर्वसागरसिन्धुज: ।।8।।
52 . सर्वमंगलदाता – सभी प्रकार के मंगल प्रदान करने वाले
53 . सर्वकामप्रदायक:– सभी मनोरथों को पूर्ण करने वाले
54 . आदिकर्ता – आदिसृष्टि के जनक
55 . महीभर्ता – पृथ्वी का भरण – पोषण करने वाले
56 . सर्वसागरसिन्धुज:– सभी समुद्र तथा नदियों को उत्पन्न करने वाले
गजगामी गजोद्धारी कामी कामकलानिधि: ।
कलंकरहितश्चन्द्रो बिम्बास्यो बिम्बसत्तम: ।।9।।
57 . गजगामी – हाथी के समान गमन करने वाले
58 . गजोद्धारी– ग्रह से गज का उद्धार करने वाले
59 . कामी – धर्मानुकूल कामनास्वरूप
60 . कामकलानिधिः – काम कला के निधान
61 . कलंकरहितः– कलंक से सर्वथा रहित
62 . चन्द्रः – चन्द्रमा की तरह कांतिमान
63 . बिम्बास्यः – बिम्ब के समान मुख मंडल वाले
64 . बिंबसत्तमः – श्रेष्ठ बिम्ब स्वरूप
मालाकार: कृपाकार: कोकिलास्वरभूषण: ।
रामो नीलाम्बरो देवो हली दुर्दममर्दन: ।।10।।
65 . मालाकार:– श्री राधा के लिए माला निर्माण करने वाले
66 . कृपाकार:– कृपा के मूर्त स्वरूप
67 . कोकिलास्वरभूषण:– कोकिल के समान सुमधुर स्वर से विभूषित
68 . रामः– भक्तों के ह्रदय में रमण करने वाले
69 . नीलाम्बरः – नील वस्त्र धारण करने वाले
70 . देवः – क्रीड़ा (लीला) करने वाले
71 . हली– बलराम के रूप में हल धारण करने वाले
72 . दुर्दम मर्दनः – दुर्दम नामक दैत्य का वध करने वाले
सहस्राक्षपुरीभेत्ता महामारीविनाशन: ।
शिव: शिवतमो भेत्ता बलारातिप्रपूजक: ।।11।।
73 . सहस्राक्षपुरीभेत्ता– कल्पवृक्ष पारिजात के लिए इंद्र को विदीर्ण करने वाले
74 . महामारीविनाशन:– महामारी का नाश करने वाले
75 . शिवः – कल्याणस्वरूप
76 . शिवतमः– अतिशय कल्याणकारी
77 . भेत्ता– शत्रुओं का विनाश करने वाले
78 . बलारातिप्रपूजक: – बलवान शत्रुओं को मान देने वाले
कुमारीवरदायी च वरेण्यो मीनकेतन: ।
नरो नारायणो धीरो राधापतिरुदारधी: ।।12।।
79 . कुमारीवरदायी– कात्यायनी की आराधना करने वाली गोपकुमारियों को इच्छा के अनुरूप वर देने वाले
80 . वरेण्यः – सर्वश्रेष्ठ
81 . मीनकेतनः– कामदेव स्वरूप
82 . नरः – नर अवतार धारण करने वाले
83 . नारायणः – नारायण स्वरूप
84 . धीरः– अतिशय धैर्यवान
85 . राधापतिः – श्री राधिका के स्वामी
86 . उदारधीः – उदार बुद्धि वाले
श्रीपति: श्रीनिधि: श्रीमान मापति: प्रतिराजहा ।
वृन्दापति: कुलग्रामी धामी ब्रह्मसनातन: ।।13।।
87 . श्रीपतिः – लक्ष्मी के स्वामी
88 . श्रीनिधिः – सौंदर्य के आगार
89 . श्रीमान – परम ऐश्वर्यशाली
90 . मापतिः – लक्ष्मी के पति
91 . प्रतिराजहा– प्रतिकूल राजाओं का विनाश करने वाले
92 . वृंदापतिः – तुलसी के पति
93 . कुलग्रामी – यदुकुल का संगठन करने वाले
94 . धामी – गोलोक धाम में निवास करने वाले
95 . ब्रह्म – अनादि ब्रह्म
96 . सनातनः – शाश्वत
रेवतीरमणो रामाश्चंचलश्चारुलोचन: ।
रामायणशरीरोऽयं रामी राम: श्रिय:पति: ।।14।।
97 . रेवतीरमणः– बलराम रूप से रेवती को आनंदित करने वाले
98 . रामः – लोक को आनंद देने वाले
99 . चंचलः– सर्वत्र गति करने वाले
100 . चारुलोचनः – सुन्दर नेत्र वाले
101 . रामायण शरीरः – रामायण रूप विग्रह वाले
102 . रामी – लीलापूर्वक लोक में विहार करने वाले
103 . रामः– त्रेतायुग में रामावतार धारण करने वाले
104 . श्रियः पतिः – लक्ष्मी के पति
शर्वर: शर्वरी शर्व: सर्वत्रशुभदायक: ।
राधाराधायितो राधी राधाचित्तप्रमोदक: ।।15।।
105 . शर्वर: – दिनस्वरूप
106 . शर्वरी: – रात्रिस्वरूप
107 . शर्व: – शिवस्वरूप
108 . सर्वत्रशुभदायक: – सर्वत्र कल्याण प्रदान करने वाले
109 . राधाराधायितः: – श्री राधिका को प्रसन्न करने वाले
110 . राधी: – भक्तों को प्रसन्नता देने वाले
111 . राधाचित्तप्रमोदक: – श्री राधिका के चित्त को आह्लादित करने वाले
राधारतिसुखोपेतो राधामोहनतत्पर: ।
राधावशीकरो राधाह्रदयांभोजषट्पद: ।।16।।
112 . राधारतिसुखोपेतः: – राधिका के प्रेम में सुख की अनुभूति करने वाले
113 . राधामोहनतत्पर: – राधा को मुग्ध करने में तत्पर
114 . राधावशीकरः: – राधा को अपने वश में करने वाले
115 . राधाह्रदयांभोजषट्पद: – राधिका के ह्रदय कमल के भ्रमर स्वरूप
राधालिंगनसम्मोहो राधानर्तनकौतुक: ।
राधासंजातसम्प्रीती राधाकामफलप्रद: ।।17।।
116 . राधालिंगनसम्मोहः: – राधिका के प्रेम बंधन में सम्मोहित
117 . राधानर्तनकौतुक: – राधिका की नृत्य क्रीड़ा के लिए उत्सुक
118 . राधासंजातसम्प्रीती: – राधिका के प्रति ह्रदय में उत्पन्न प्रेम वाले
119 . राधाकामफलप्रद: – राधिका की अभिलाषा को पूर्ण करने वाले
वृन्दापति: कोशनिधिर्लोकशोकविनाशक: ।
चन्द्रापतिश्चन्द्रपतिश्चण्डकोदण्दभंजन: ।।18।।
120 . वृन्दापति: – वृंदा के स्वामी
121 . कोशनिधिः: – अनंत ब्रह्माण्डों के आश्रय
122 . कोकशोकविनाशनः: – चक्रवाक पक्षियों के शोक शमन करने वाले सूर्य के समान
123 . चंद्रापतिः: – अमृतमयी चन्द्रिका के स्वामी चंद्र स्वरूप
124 . चन्द्रपतिः: – चंद्र के स्वामी
125 . चंद्रकोदंडभञ्जनः: – राम रूप में भगवान् शिव जी के भीषण पिनाक को भंग करने वाले
रामो दाशरथी रामो भृगुवंशसमुदभव: ।
आत्मारामो जितक्रोधो मोहो मोहान्धभंजन ।।19।।
126 . रामः: – योगियों के ह्रदय में रमण करने वाले
127 . दाशरथिः रामः: – दशरथ नंदन राम के रूप में अवतार ग्रहण करने वाले
128 . भृगुवंशसमुदभव: – भृगुवंश में परशुराम रूप से अवतार लेने वाले
129 . आत्मारामः: – आत्मा में रमण करने वाले
130 . जितक्रोधः: – क्रोध पर विजय प्राप्त करने वाले
131 . मोहः: – साक्षात मोह स्वरूप
132 . मोहांधभंजनः: – मोहरूपी अन्धकार को दूर करने वाले
वृषभानुर्भवो भाव: काश्यपिः करुणानिधिः ।
कोलाहलो हली हाली हेली हलधरप्रिय: ।।20।।
133 . वृषभानुः: – पराक्रमी जनों के बीच सूर्य के समान तेजस्वी
134 . भवः: – भक्तों की इच्छा पूर्ण करने के लिए संसार में अवतार लेने वाले
135 . भावः: – शुभ भावनाओं से पूर्ण
136 . काश्यपिः: – कश्यप जी के पुत्र रूप में वामनावतार लेने वाले
137 . करुणानिधिः: – दया के समुद्र
138 . कोलाहलः: – नृसिंहावतार में संसार को कोलाहल में डालने वाले
139 . हली: – बलभद्र जी के रूप में हल धारण करने वाले
140 . हाली: – बलराम रूप में हालाप्रिय
141 . हेली: – क्रीड़ा प्रिय
142 . हलधरप्रियः: – बलराम जी के अत्यंत प्रिय
राधामुखाब्जमार्तण्डो भास्करो विरजो विधु: ।
विधिर्विधाता वरुणो वारुणो वारुणीप्रिय: ।।21।।
143 . राधामुखाब्जमार्तण्डः: – राधा के मुख कमल के लिए सूर्य के समान
144 . भास्करः: – सूर्य के समान विश्व को प्रकाशित करने वाले
145 . रविजः: – राम रूप में सूर्य वंश में अवतार लेने वाले
146 . विधुः: – चंद्र स्वरूप
147 . विधिः: – विश्व का विधान करने वाले
148 . विधाता: – संसार की रचना करने वाले
149 . वरुणः: – जल के अधिष्ठाता वरुण रूप
150 . वारुणः: – जलरूप से विद्यमान
151 . वारुणीप्रियः: – बलराम जी के रूप में कदम्ब – रस के प्रेमी
रोहिणीह्रदयानन्दी वसुदेवात्मजो बलि: ।
नीलाम्बरो रौहिणेयो जरासन्धवधोsमल: ।।22।।
152 . रोहिणीह्रदयानन्दी: – रोहिणी जी के ह्रदय को आनंदित करने वाले
153 . वसुदेवात्मजः: – वासुदेव जी के पुत्र के रूप में अवतार लेने वाले
154 . बली: – श्रेष्ठ पराक्रमी
155 . नीलाम्बरः: – नील आकाश जैसी आभा वाले
156 . रौहिणेयः: – बलराम रूप में रोहिणी के पुत्र
157 . जरासंधवधः: – भीम के द्वारा जरासंध का वध कराने वाले
158 . अमलः: – निर्मल स्वरूप
नागो नवाम्भोविरुदो वीरहा वरदो बली ।
गोपथो विजयी विद्वान शिपिविष्ट: सनातन: ।।23।।
159 . नागः: – गोवर्धन पर्वत का रूप धारण करने वाले
160 . नवांभः: – स्वच्छ जल के समान आभा वाले
161 . विरुदः: – यशस्वी
162 . वीरहा: – वीर शत्रुओं का संहार करने वाले
163 . वरदः: – भक्तों को वरदान देने वाले
164 . बली: – सबसे अधिक बलवान
165 . गोपथः: – मन आदि इन्द्रियों के परम गम्य
166 . विजयी: – शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने वाले
167 . विद्वान: – सभी प्रकार के ज्ञान से परिपूर्ण
168 . शिपिविष्टः: – सभी प्राणियों में व्याप्त शिव स्वरूप
169 . सनातनः: – शाश्वत
पर्शुरामवचोग्राही वरग्राही श्रृगालहा ।
दमघोषोपदेष्टा च रथग्राही सुदर्शन: ।।24।।
170 . पर्शुरामवचोग्राही: – रामावतार में परशुराम जी की प्रार्थना स्वीकार करने वाले
171 . वरग्राही: – उत्तम वस्तुओं को ग्रहण करने वाले
172 . शृगालहा: – मायावियों के विनाशकर्ता
173 . दमघोषोपदेष्टा: – शिशुपाल के पिता दमघोष को उपदेश प्रदान करने वाले
174 . रथग्राही: – भीष्म पितामह की प्रतिज्ञा को पूर्ण करने के लिए रथ चक्र का ग्रहण करने वाले
175 . सुदर्शनः: – देखने में अतिसुन्दर
वीरपत्नीयशस्राता जराव्याधिविघातक: ।
द्वारकावासतत्त्वज्ञो हुताशनवरप्रद: ।।25।।
176 . वीरपत्नीयशस्राता: – अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ रूप यश के रक्षक
177 . जराव्याधिविघातकः: – जरारूप व्याधि को समाप्त करने वाले
178 . द्वारकावासतत्त्वज्ञः: – द्वारकावास के रहस्य के ज्ञाता
179 . हुताशनवरप्रदः: – अग्निदेव को वर प्रदान करने वाले
यमुनावेगसंहारी नीलाम्बरधर: प्रभु: ।
विभु: शरासनो धन्वी गणेशो गणनायक: ।।26।।
180 . यमुनावेगसंहारी: – चरण स्पर्श से यमुना के प्रवाह का नियमन करने वाले
181 . नीलाम्बरधरः: – (लीलापूर्वक राधिका के) नीलवस्त्र धारण करने वाले
182 . प्रभुः: – सम्पूर्ण संसार के अधिपति
183 . विभुः: – सर्वव्यापक
184 . शरासनः: – धनुष धारण करने वाले
185 . धन्वी: – धनुर्विद्या में निपुण
186 . गणेशः: – गोपगणों के स्वामी
187 . गणनायकः: – यादवगण का नेतृत्व करने वाले
लक्ष्मणो लक्षणो लक्ष्यो रक्षोवंशविनशन: ।
वामनो वामनीभूतो बलिजिद्विक्रमत्रय: ।।27।।
188 . लक्ष्मणः: – श्रीवत्स के चिह्न से शोभित वक्षः स्थल वाले
189 . लक्षणः: – शुभ लक्षणों से युक्त
190 . लक्ष्यः: – प्राणिमात्र के परम ध्येय
191 . रक्षोवंशविनशनः: – राक्षस वंश का विनाश करने वाले
192 . वामनः: – वामन रूप में अवतार लेने वाले
193 . वामनीभूतः: – देवताओं के कल्याणार्थ वामन का रूप धारण करने वाले
194 . वमनः: – प्रकाश स्वरूप
195 . वमनारूहः: – प्रकाश पथ (सत्पथ) पर आरूढ़
यशोदानन्दन: कर्ता यमलार्जुनमुक्तिद:
उलूखली महामानी दामबद्धाह्वयी शमी ।।28।।
196 . यशोदानंदनः: – यशोदा जी को आनंद देने वाले
197 . कर्ता: – संसार को बनाने वाले
198 . यमलार्जुनमुक्तिदः: – यमलार्जुन को मुक्ति देने वाले
199 . उलूखली: – यशोदा जी से ऊखल में बंधने वाले
200 . महामानी: – स्वाभिमानियों में सर्वश्रेष्ठ
201 . दामबद्धाह्वयी: – यशोदा जी द्वारा रस्सी से बंधने के कारण ‘दामबद्ध’ नाम वाले
202 . शमी: – शांति स्वरूप
भक्तानुकारी भगवान केशवोsचलधारक: ।
केशिहा मधुहा मोही वृषासुरविघातक: ।।29।।
203 . भक्तानुकारी: – भक्तों की इच्छा का मान रखने वाले
204 . भगवान्: – छः ऐश्वर्यों से संपन्न
205 . केशवः: – ब्रह्मा, विष्णु और शिव संज्ञक शक्तियों से संपन्न
206 . अचलधारकः: – गोवर्धन पर्वत को धारण करने वाले
207 . केशिहा: – केशी नामक दैत्य का संहार करने वाले
208 . मधुहा: – मधु नामक दैत्य का वध करने वाले
209 . मोही: – अपनी माया द्वारा सम्पूर्ण संसार को मोहित करने वाले
210 . वृषासुरविघातकः: – वृषासुर का वध करने वाले
अघासुरविनाशी च पूतनामोक्षदायक: ।
कुब्जाविनोदी भगवान कंसमृत्युर्महामखी ।।30।।
211 . अघासुरविनाशी: – अघासुर का वध करने वाले
212 . पूतनामोक्षदायकः: – पूतना को मोक्ष प्रदान करने वाले
213 . कुब्जाविनोदी: – कुब्जा को आनंद देने वाले
214 . भगवान्: – छः ऐश्वर्यों से सदा परिपूर्ण
215 . कंसमृत्यु: – कंस के लिए साक्षात मृत्यु स्वरूप
216 . महामखी: – बड़े-बड़े यज्ञों का अनुष्ठान करने वाले
अश्वमेधो वाजपेयः गोमेधो नरमेधवान् ।
कन्दर्पकोटिलावण्यश्चन्द्रकोटिसुशीतलः ।।31।।
217 . अश्वमेधः: – अश्वमेध यज्ञ करने वाले
218 . वाजपेयः: – वाजपेय यज्ञ करने वाले
219 . गोमेधः: – गोमेध यज्ञ करने वाले
220 . नरमेधवान्: – नरमेध यज्ञ करने वाले
221 . कन्दर्पकोटिलावण्यः: – करोड़ों कामदेवों के समान शोभाशाली
222 . चन्द्रकोटिसुशीतलः: – करोड़ों चंद्रमाओं के समान शीतल
रविकोटिप्रतीकाशो वायुकोटिमहाबलः ।
ब्रह्मा ब्रह्माण्डकर्ता च कमलावांछितप्रदः ।।32।।
223 . रविकोटिप्रतीकाशः: – करोड़ों सूर्यों के समान तेजस्वी
224 . वायुकोटिमहाबलः: – करोड़ों वायुओं के समान महाबली
225 . ब्रह्मा: – सृष्टि करने वाले
226 . ब्रह्माण्डकर्ता: – ब्रह्माण्डों का निर्माण करने वाले
227 . कमलवांछितप्रदः: – श्री लक्ष्मी के मनोरथ को पूर्ण करने वाले
कमला कमलाक्षश्च कमलामुखलोलुपः ।
कमलाव्रतधारी च कमलाभः पुरन्दरः ।।33।।
228 . कमला: – श्री लक्ष्मी के रूप से विराजमान
229 . कमलाक्षः: – कमल पुष्प के समान सुंदर नेत्र वाले
230 . कमलामुखलोलुपः: – लक्ष्मी जी के मुख लावण्य में आसक्त
231 . कमलाव्रतधारी: – एकमात्र लक्ष्मी जी से प्रेम करने वाले
232 . कमलाभः: – नीलकमल के समान कांति वाले
233 . पुरन्दरः: – शत्रु नगरों का विध्वंस करने वाले
सौभाग्याधिकचित्तोऽयं महामायी महोत्कटः ।
तारकारि: सुरत्राता मारीचक्षोभकारकः ।।34।।
234 . सौभाग्याधिकचित्तः: – सौभाग्य की वृद्धि के लिए दत्तचित्त
235 . महामायी: – अद्वितीय मायावी
236 . महोत्कटः: – दुष्टों के लिए दुर्धर्ष
237 . तारकारि: – तारक दैत्य के शत्रु
238 . सुरत्राता: – देवगणों को अभयदान देने वाले
239 . मारीचक्षोभकारकः: – रामावतार में मारीच को विकल करने वाले
विश्वामित्रप्रियो दान्तो रामो राजीवलोचनः ।
लंकाधिपकुलध्वंसी विभीषणवरप्रदः ।।35।।
240 . विश्वामित्रप्रियः: – महर्षि विश्वामित्र के प्रिय
241 . दान्तः: – जितेन्द्रिय
242 . रामः: – भगवान श्रीराम
243 . राजीवलोचनः: – कमल के समान सुंदर नेत्र वाले
244 . लंकाधिपकुलध्वंसी: – लंकेश्वर रावण के कुल का विध्वंस करने वाले
245 . विभीषणवरप्रदः: – विभीषण को वर प्रदान करने वाले
सीतानन्दकरो रामो वीरो वारिधिबन्धनः ।
खरदूषणसंहारी साकेतपुरवासनः ।।36।।
246 . सीतानंदकरः: – सीताजी को आनंद देने वाले
247 . रामः: – श्री रामचंद्र
248 . वीरः: – पराक्रमी
249 . वारिधिबन्धनः: – समुद्र में सेतुबंध का निर्माण करने वाले
250 . खरदूषणसंहारी: – खर-दूषण नामक राक्षसों का संहार करने वाले
251 . साकेतपुरवासनः: – साकेतपुर में निवास करने वाले
चन्द्रावलीपति: कूल: केशी कंसवधोऽमरः ।
माधवो मधुहा माध्वी माध्वीकः माधवो मधुः ।।37।।
252 . चन्द्रावलीपति: – चन्द्रावली के स्वामी
253 . कूलः: – कालिंदी तट पर विहार करने वाले
254 . केशी: – सुंदर केश वाले
255 . कंसवधः: – कंस का संहार करने वाले
256 . अमरः: – मृत्यु आदि छः विकारों से रहित
257 . माधवः: – लक्ष्मी जी के पति
258 . मधुहा: – मधु नामक राक्षस का संहार करने वाले
259 . माध्वी: – अति मधुर स्वरूप वाले
260 . माध्वीकः: – मधुर ध्वनि करने वाले
261 . माधवः: – वसंत ऋतु स्वरूप
262 . मधुः: – मधुर स्वभाव वाले
मुंजाटवीगाहमानो धेनुकारिर्धरात्मजः ।
वंशीवटबिहारी च गोवर्धनवनाश्रयः ।।38।।
263 . मुंजाटवीगाहमानः: – मूँज के वनों में विहरण करने वाले
264 . धेनुकारिः: – धेनुकासुर के शत्रु
265 . धरात्मजः: – पृथ्वी पुत्र
266 . वंशीवटबिहारी: – यमुनातट पर वंशीवट में विहार करने वाले
267 . गोवर्धनवनाश्रयः: – गोवर्धन पर्वत के वनों में विश्राम करने वाले
तथा तालवनोद्देशी भाण्डीरवनशंखहा ।
तृणावर्तकथाकारी वृषभनुसुतापति: ।।39।।
268 . तालवनोद्देशी: – ताल वन में भ्रमण करने वाले
269 . भाण्डीरवनशंखहा: – भाण्डीरवन में शंखासुर का वध करने वाले
270 . तृणावर्तकथाकारी: – तृणावर्त दैत्य का वध करके केवल उसका नाम संसार में शेष रखने वाले
271 . वृषभनुसुतापति: – वृषभानु की पुत्री राधा के पति
राधाप्राणसमो राधावदनाब्जमधुव्रतः ।
गोपीरंजनदैवज्ञो लीलाकमलपूजितः ।।40।।
272 . राधाप्राणसमः: – राधिका जी के प्राणतुल्य
273 . राधावदनाब्जमधुव्रतः: – श्रीराधाजी के मुखकमल के भ्रमर
274 . गोपीरंजनदैवज्ञः: – गोपियों को प्रसन्न करने के लिए ज्योतिषी का वेश धारण करने वाले
275 . लीलाकमलपूजितः: – क्रीड़ारत गोपियों द्वारा कमल पुष्पों से पूजित
क्रीडाकमलसन्दोहो गोपिकाप्रीतिरंजनः ।
रञ्जको रञ्जनो रङ्गो रङ्गी रंगमहीरुः ।।41।।
276 . क्रीडाकमलसन्दोः: – क्रीड़ा-कमल के समूह की भांति सुंदर
277 . गोपिकाप्रीतिरंजनः: – प्रेम दान के द्वारा गोपिकाओं को आनंद देने वाले
278 . रञ्जकः: – सबको आनंदित करने वाले
279 . रंजनः: – आनंद स्वरूप
280 . रङ्गः: – लोक लीला स्वरूप
281 . रंगी: – लोक लीला करने वाले
282 . रंगमहीरुः: – लीला-विलास के लिए कल्प वृक्ष के समान
कामः कामारिभक्तोऽयं पुराणपुरुषः कविः ।
नारदो देवलो भीमो बालो बालमुखाम्बुजः ।।42।।
283 . कामः: – काम स्वरूप
284 . कामारिभक्तिः: – भगवान शिव के भक्त
285 . पुराणपुरुषः: – आदिपुरुष
286 . कविः: – ज्ञान स्वरूप
287 . नारदः: – नारद रूप से विश्व में विचरण करने वाले
288 . देवलः: – देवल ऋषि के रूप में विद्यमान
289 . भीमः: – दुष्ट स्वभाव वालों के लिए भयावह
290 . बालः: – बालक के समान रूप वाले
291 . बालमुखाम्बुजः: – बालक के समान मुखारविंद वाले
अम्बुजो ब्रह्मसाक्षी च योगीदत्तवरो मुनि: ।
ऋषभः पर्वतो ग्रामो नदीपवनवल्लभः ।।43।।
292 . अम्बुजः: – कमल पुष्प के रूप में प्रतिष्ठित
293 . ब्रह्मसाक्षी: – ब्रह्म के साक्षी स्वरूप
294 . योगी: – योगपरायण
295 . दत्तवरः: – भक्तों को वर देने वाले
296 . मुनिः: – मननशील मुनिस्वरूप
297 . ऋषभः: – ऋषभ देव रूप में अवतरित
298 . पर्वतः: – अंशरूप से पर्वत में भी निवास करने वाले
299 . ग्रामः: – यूथरूप से संसार में रहने वाले
300 . नदीपवनवल्लभः: – यमुना नदी के उपवनों में प्रीति रखने वाले
पद्मनाभ: सुरज्येष्ठो ब्रह्मा रुद्रोsहिभूषित: ।
गणानां त्राणकर्ता च गणेशो ग्रहिलो ग्रही ।।44।।
301 . पद्मनाभ:- जगत के कारण रूप कमल को अपनी नाभि में स्थान देने वाले
302 . सुर ज्येष्ठः – सभी देवताओं में श्रेष्ठ
303 . ब्रह्मा – सृष्टि करने वाले
304 . रुद्रः – रूद्र स्वरूप
305 . अहिभूषितः – सर्पों के आभूषण धारण करने वाले
306 . गणानां त्राणकर्ता – देवसेना की रक्षा करने वाले
307 – गणेशः – देवगणों के स्वामी
308 . ग्रहिलः- शरणागतों पर अनुग्रह करने वाले
309 .ग्रही – भक्तों के द्वारा समर्पित पत्र – पुष्पादि को प्रसन्नता पूर्वक ग्रहण करने वाले
गणाश्रयो गणाध्यक्ष: क्रोडीकृतजगत्रय: ।
यादवेन्द्रो द्वारकेन्द्रो मथुरावल्लभो धुरी ।।45।।
310 . गणाश्रयः – देवताओं को आश्रय देने वाले
311 . गणाध्यक्षः – देवगणो के नाथ
312 . क्रोडीकृतजगत्रय:- तीनों लोकों को अपने अंक में रखने वाले
313 . यादवेन्द्रः – यदुवंशियों के अधिपति
314 . द्वारकेन्द्रः – द्वारकापुरी के अधीश्वर
315 . मथुरावलभः – मथुरा नगरी के प्रेम भाजन
316 . धुरी – सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के आधारस्वरूप
भ्रमर: कुन्तली कुन्तीसुतरक्षी महामखी ।
यमुनावरदाता च कश्यपस्य वरप्रद: ।।46।।
317 . भ्रमरः – भक्ति रस आस्वादन में भ्रमर रूप
318 . कुंतली – सुदीर्घ केश पाश वाले
319 . कुन्तीसुतरक्षी- कुंती के पुत्रों के रक्षक
320 . महामखी – राजसूय आदि महान यज्ञों को करने वाले
321 . यमुनावरदाता- श्री यमुना जी को वर प्रदान करने वाले
322 . कश्यपस्य वरप्रद:- कश्यपजी के पुत्र देवगणों को अभय प्रदान करने वाले
शड़्खचूडवधोद्दामो गोपीरक्षणतत्पर: ।
पांचजन्यकरो रामी त्रिरामी वनजो जय: ।।47।।
323 . शड़्खचूडवधोद्दामः- शंखचूण का वध करने के लिए अत्यंत व्यग्र
324 . गोपीरक्षणतत्पर: – गोपियों की रक्षा में सदा तत्पर
325 . पांचजन्यकरः- पाञ्चजन्य नामक शंख से सुशोभित हाथ वाले
326 . रामी- भक्तों के चित्त में रमण करने वाले
327 . त्रिरामी- श्री राम , परशुराम और बलराम – इन तीनों नामों से प्रख्यात
328 . वनजः- कमलस्वरूप
329 . जय:- धर्म विजय स्वरूप
फाल्गुन: फाल्गुनसखो विराधवधकारक: ।
रुक्मिणीप्राणनाथश्च सत्यभामाप्रियंकर: ।।48।।
330 . फाल्गुन:- अर्जुन के रूप में प्रादुर्भूत होने वाले नर रूप
331 . फाल्गुनसखः – अर्जुन के सखा
332 .विराधवधकारक: – विराध नामक राक्षस का वध करने वाले
333 .रुक्मिणीप्राणनाथः – रुक्मणी जी के प्राणनाथ
334 . सत्यभामाप्रियंकर:- सत्यभामा का प्रिय करने वाले
कल्पवृक्षो महावृक्षो दानवृक्षो महाफल: ।
अंकुशो भूसुरो भामो भामको भ्रामको हरि: ।।49।।
335 . कल्पवृक्षः- मन की इच्छा को पूर्ण करने वाले कल्प वृक्ष स्वरूप
336 . महावृक्षः – संसार रुपी महावृक्ष
337 . दानवृक्षः – वृक्ष के समान दान देकर संसार के हित में तत्पर रहने वाले
338 . महाफलः- धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष – पुरुषार्थ चतुष्टय रूप महाफल से युक्त
339 . अंकुशः – दुष्टों के लिए अंकुशरूप
340 . भूसुरः- पृथ्वी के देवता ब्राह्मण स्वरूप
341 . भामः- दूसरों को भी कुपित करने वाले
342 . भामकः – दूसरों को भी कुपित करने वाले
343 . भ्रामकः- सम्पूर्ण संसार को अपनी माया से मोहित करने वाले
344 . हरिः – भक्तों के दुःखों का हरण करने वाले
सरल: शाश्वत: वीरो यदुवंशी शिवात्मक: ।
प्रद्युम्नबलकर्ता च प्रहर्ता दैत्यहा प्रभु: ।।50।।
345 . सरलः- स्वभाव से अति मधुर
346 . शाश्वतः – सनातन
347 . वीरः – महापराक्रमशाली
348 . यदुवंशी – यदुवंश में आविर्भूत
349 . शिवात्मक: – कल्याणमय स्वरूप वाले
350 . प्रद्युम्नः – अत्यंत कांति से संपन्न
351 . बलकर्ता – निर्बलों को बल देने वाले
352 . प्रहर्ता – दुष्टों का संहार करने वाले
353 . दैत्यहा – दैत्यों का हनन करने वाले
354 . प्रभुः – सम्पूर्ण जगत के स्वामी
महाधनो महावीरो वनमालाविभूषण: ।
तुलसीदामशोभाढयो जालन्धरविनाशन: ।।51।।
355 . महाधनः – अनंत धनराशि से संपन्न
356 . महावीरः – महापराक्रमशाली
357 . वनमालाविभूषण: – वनमालाओं का आभूषण धारण करने वाले
358 . तुलसीदामशोभाढ्यः – तुलसी की मालाओं से सुशोभित
359 . जालन्धरविनाशन: – जालंधर का विनाश करने वाले
शूर: सूर्यो मृकण्डश्च भास्करो विश्वपूजित: ।
रविस्तमोहा वह्निश्च वाडवो वडवानल: ।।52।।
360 . शूरः – शौर्य शाली
361 . सूर्यः – सूर्यरूप में विश्व को प्रकाश देने वाले
362 . मृकण्डः- मार्कण्डेय मुनि स्वरूप
363 . भास्करः – प्रकाश उत्पन्न करने वाले
364 . विश्व पूजितः – सर्व पूजित
365 . रविः – सूर्यस्वरूप
366 . तमोहा – अन्धकार को विनष्ट करने वाले
367 . वह्निः – अग्निस्वरूप
368 . वाडवः – ब्राह्मणस्वरूप
369 . वडवानलः – समुद्र का शोषण करने वाले अग्निरूप
दैत्यदर्पविनाशी च गरुड़ो गरुडाग्रज: ।
गोपीनाथो महीनाथो वृन्दानाथोवरोधक: ।।53।।
370 . दैत्यदर्पविनाशी- दैत्यों के अभिमान का नाश करने वाले
371 . गरुड़ः – गरुड़रूप
372 . गरुडाग्रजः- गरुड़ के ज्येष्ठ भ्राता सूर्य सारथि अरुण स्वरूप
373 . गोपीनाथः – गोपियों के स्वामी
374 . महीनाथः- सम्पूर्ण पृथ्वी के अधिपति
375 . वृन्दानाथः – वृंदा के स्वामी
376 . अवरोधकः – भक्तों की आपत्तियों का निवारण करने वाले
प्रपंची पंचरूपश्च लतागुल्मश्च गोपति: ।
गंगा च यमुनारूपो गोदा वेत्रवती तथा ।।54।।
377 . प्रपंची – माया के अधिपति
378 . पंचरूपः – मृत्युस्वरूप
379 . लतागुल्मः – लता , शाखा आदि में भी अंशरूप से विद्यमान
380 . गोपतिः – गौओं की रक्षा करने वाले
381 . गङ्गा – त्रिभुवन पावनी गंगाजी के रूप में विद्यमान
382 . यमुना रूपः – यमुना स्वरूप
383 . गोदा – गोदावरी स्वरूप
384 . वेत्रवती – वेत्रवती स्वरुप
कावेरी नर्मदा तापी गण्डकीसरयूस्तथा ।
राजसस्तामस: सत्त्वी सर्वांगी सर्वलोचन: ।।55।।
385 . कावेरी – कावेरी रूप
386 . नर्मदा – नर्मदा रूप
387 . तापी – तापी रूप
388 . गण्डकी – गण्डकी रूप
389 . सरयुः – सरयू रूप
390 . राजसः – रजोगुणमय
391 . तामसः – तमोगुण से संपन्न
392 . सत्त्वी – सत्त्व गुण से युक्त
393 . सर्वांगी – सम्पूर्ण अंगों से संपन्न
394 . सर्वलोचन: – सब पर दृष्टि रखने वाले
सुधामयोऽमृतमयो योगिनीवल्लभ: शिव: ।
बुद्धो बुद्धिमतां श्रेष्ठो विष्णुर्जिष्णु: शचीपति: ।।56।।
395 . सुधामयः – सुधा से परिपूर्ण
396 . अमृतमयः – अमृतयुक्त
397 . योगिनीवल्लभः – चौंसठ योगिनियों के प्रेम पात्र
398 . शिवः – कल्याणमय
399 . बुद्धः – ज्ञानस्वरूप
400 . बुद्धिमतां श्रेष्ठः – बुद्धिमानों में श्रेष्ठ
401 . विष्णुः – सर्वव्यापी
402 . जिष्णुः – सर्वत्र विजय प्राप्त करने वाले
403 . शचीपतिः – इंद्राणी के स्वामी
वंशी वंशधरो लोको विलोको मोहनाशन: ।
रवरावो रवो रावो बालो बालबलाहक: ।।57।।
404 . वंशी – हाथ में वंशी धारण करने वाले
405 . वंशधरः – वृष्णिवंश के रक्षक
406 . लोकः – जगत्स्वरूप
407 . विलोकः – सम्पूर्ण लोकों में सदा दृष्टि रखने वाले
408 . मोहनाशनः – अज्ञान का नाश करने वाले
409 . रवरावः – नानाविध ध्वनिस्वरूप
410 . रवः – अव्यक्त शब्द वाले
411 . रावः – बहुत थोड़े समय में शत्रुओं को रुला देने वाले
412 . बालः – बालक के समान सुकोमल स्वभाव वाले
413 . बालबलाहकः – नवीन मेघ के समान वर्ण वाले
शिवो रुद्रो नलो नीलो लांङ्गली लांङ्गलाश्रय: ।
पारद: पावनो हंसो हंसारूढ़ो जगत्पति: ।।58।।
414 . शिवः – कल्याणमय विग्रह वाले
415 . रुद्रः – भयकारक स्वरूप वाले
416 . नलः – रामावतार में सेतु का निर्माण करने वाले नर स्वरूप
417 . नीलः – रामावतार में सेतु का निर्माण करने वाले नील स्वरूप
418 . लांङ्गली – नल, नील तथा हनुमान आदि में अधिक प्रेम होने के कारण तदात्म भाव वाले
419 . लांङ्गलाश्रयः – बलराम जी का अवतार धारण कर हल को ही अपना शस्त्र बनाने वाले
420 . पारदः – प्रसन्न होकर भक्तों को भवसागर से पार लगाने वाले
421 . पावनः – तीनों भुवनों को पवित्र करने वाले
422 . हंसः – हंस के समान गति वाले
423 . हंसारूढ़ः – ब्रह्मा रूप में हंस पर आरूढ़ होने वाले
424 . जगत्पतिः – जगत के स्वामी
मोहिनीमोहनः मायी महामायो महामखी ।
वृषो वृषाकपि: कालः कालीदमनकारक: ।।59।।
425 . मोहिनीमोहनः – विश्व मोहिनी को भी अपनी रूप माधुरी से मोहित कर देने वाले
426 . मायी – माया की सृष्टि करने वाले
427 . महामायः – महान माया से संपन्न
428 . महामखी – बड़े-बड़े यज्ञ करने वाले
429 . वृषः – धर्म स्वरूप
430 . वृषाकपिः – अपने धर्म पर अडिग रहने वाले
431 . कालः – कालरूप
432 . कालीदमनकारकः – कालिय नाग का दमन करने वाले
कुब्जाभाग्यप्रदः वीरो रजकक्षयकारक: ।
कोमलो वारुणो राजा जलजो जलधारक: ।।60।।
433 . कुब्जाभाग्यप्रदः – कुब्जा के भी भाग्य को बदलने वाले
434 . वीरः – शौर्यशाली
435 . रजकक्षयकारकः – कंस के धोबी का संहार करने वाले
436 . कोमलः – स्वभाव से अति कोमल
437 . वारुणः – वरुण देवता के अंश से विद्यमान
438 . राजा – सर्वोत्तम सौंदर्य वाले
439 . जलजः – कमल के सदृश अति सुंदर
440 . जलधारकः – शिव रूप में भगवती गंगा जी को अपने मस्तक पर धारण करने वाले
हारकः सर्वपापघ्नः परमेष्ठी पितामह: ।
खड्गधारी कृपाकारी राधारमणसुन्दरः ।।61।।
441 . हारकः – रुष्ट होने पर सर्वस्व हर लेने वाले
442 . सर्वपापघ्नः – सभी प्रकार के पापों को नष्ट करने वाले
443 . परमेष्ठी – ब्रह्मा रूप से जगत की सृष्टि करने वाले
444 . पितामहः – सम्पूर्ण जगत के पितामह स्वरूप
445 . खड्गधारी – हाथों में खड्ग धारण करने वाले
446 . कृपाकारी – प्राणियों पर कृपा करने वाले
447 . राधारमणसुन्दरः – राधा के साथ विहार के लिए सुंदर रूप धारण करने वाले
द्वादशारण्यसम्भोगी शेषनागफणालयः ।
कामः श्यामः सुखः श्रीदः श्रीपति: श्रीनिधि: कृति: ।।62।।
448 . द्वादशारण्यसम्भोगी – वृंदावन आदि बारह वनों में विहार करने वाले
449 . शेषनागफणालयः – शेषनाग के फणों पर अपना निवास स्थान बनाने वाले
450 . कामः – अतिशय कमनीय
451 . श्यामः – श्याम वर्ण वाले
452 . सुखः – सुख स्वरूप
453 . श्रीदः – लक्ष्मी प्रदान करने वाले
454 . श्रीपति: – लक्ष्मी जी के पति
455 . श्रीनिधिः – सम्पूर्ण ऐश्वर्य के निधि स्वरूप
456 . कृति: – कार्य रूप में व्यक्त
हरिर्हरो नरो नारो नरोत्तम इषुप्रियः ।
गोपालीचित्तहर्ता च कर्ता संसारतारकः ।।63।।
457 . हरिः – दुःखों को दूर करने वाले
458 . हरः – शिव स्वरूप
459 . नरः – मनुष्य रूप में अवतार धारण करने वाले
460 . नारः – शरणागत मनुष्यों के आश्रय
461 . नरोत्तमः – मनुष्यों में उत्तम
462 . इषुप्रियः – धनुर्विद्या से प्रेम रखने वाले
463 . गोपालीचित्तहर्ता – गोपिकाओं के चित्त का हरण करने वाले
464 . कर्ता – सब कुछ करने में समर्थ
465 . संसारतारकः – अपने भक्तों को संसार समुद्र से पार लगाने वाले
आदिदेवो महादेवो गौरीगुरुरनाश्रयः ।
साधुः मधुः विधुः धाता भ्राता अक्रूरपरायणः ।।64।।
466 . आदिदेवः – समस्त देवताओं के आदिस्वरूप
467 . महादेवः – सभी देवताओं में श्रेष्ठ
468 . गौरीगुरुः – शिव स्वरूप में भवानी के पति
469 . अनाश्रयः – किसी के भी आश्रय की कामना रखने वाले
470 . साधुः – अपने भक्तों के हित में तत्पर रहने वाले
471 . मधुः – अतिशय मधुर स्वभाव वाले
472 . विधुः – चंद्ररूप से संसार को शीतलता प्रदान करने वाले
473 . धाता – सम्पूर्ण विश्व का लालन-पालन करने वाले
474 . भ्राता – सबकी रक्षा करने वाले
475 . क्रूरपरायणः – दुष्टों के विनाश में लगे रहने वाले
रोलम्बी च हयग्रीवो वानरारिर्वनाश्रयः ।
वनं वनी वनाध्यक्षो महावन्द्यः महामुनिः ।।65।।
476 . रोलम्बी – भक्ति रास का आस्वाद लेने के लिए भक्तों के निकट भ्रमर की तरह भ्रमण करने वाले
477 . हयग्रीवः – अपने भक्तों का संकट दूर करने के लिए हयग्रीव का अवतार लेने वाले
478 . वानरारिः – द्विविद नामक वानर के शत्रु रूप
479 . वनाश्रयः – वन में निवास करने वाले
480 . वनम – वन स्वरूप
481 . वनी – वनों में विहार करने वाले
482 . वनाध्यक्षः – वनों के स्वामी
483 . महावन्द्यः – अति वंदनीय
484 . महामुनिः – मुनियों में श्रेष्ठतम
स्यमन्तकमणिप्राज्ञो विज्ञो विघ्नविघातकः ।
गोवर्धनो वर्धनीयो वर्धनी वर्धनप्रियः ।।66।।
485 . स्यमन्तकमणिप्राज्ञः – स्यमन्तक मणि के विषय में पूर्ण ज्ञानवान
486 . विज्ञः – परम ज्ञानी
487 . विघ्नविघातकः – विघ्नों के विनाशकर्ता
488 . गोवर्धनः – गोवंश की वृद्धि करने वाले
489 . वर्धनीयः – बाल स्वरूप
490 . वर्धनी – भक्तों की कलुषता का निवारण करने वाले
491 . वर्धनप्रियः – भक्ति सम्पदा की वृद्धि से प्रीति रखने वाले
वर्धन्यो वर्धनो वर्धी वार्धिन्यः सुमुखप्रियः ।
वर्धितो वृद्धको वृद्धो वृन्दारकजनप्रियः ।।67।।
492 . वरधन्यः – उत्तरोत्तर वृद्धि के योग्य
493 . वर्धनः – वृद्धि करने वाले
494 . वर्धी – सभी के लिए उन्नति मार्ग के पथ प्रदर्शक
495 . वार्धिन्यः – सबकी उन्नति के लिए सदा तत्पर रहने वाले
496 . सुमुखप्रियः – सुंदर मुख के द्वारा सभी को प्रिय लगने वाले
497 . वर्धितः – यशोदा जी के द्वारा पालन-पोषण करके वृद्धि को प्राप्त
498 . वृद्धकः – वृद्धि स्वरूप
499 . वृद्धः – सबसे वृद्ध
500 . वृन्दारकजनप्रियः – देवताओं के प्रिय
गोपालरमणीभर्ता साम्बकुष्ठविनाशन: ।
रुक्मिणीहरण: प्रेमप्रेमी चन्द्रावलीपति: ।।68।।
501 . गोपालरमणीभर्ता- गोपालों की भार्याओं का भरण – पोषण करने वाले
502 . साम्बकुष्ठविनाशन:- साम्ब के कुष्ठ का नाश करने वाले
503 . रुक्मिणीहरण:- रुक्मणि का हरण करने वाले
504 . प्रेम- प्रेमस्वरूप
505 . प्रेमी- प्रेमपरायण
506 . चन्द्रावलीपति:- चन्द्रावली के स्वामी
श्रीकर्ता विश्वभर्ता च नरो नारायणो बली ।
गणो गणपतिश्चैव दत्तात्रेयो महामुनि: ।।69।।
507 . श्रीकर्ता- सौंदर्य के दाता
508 .विश्वभर्ता- सम्पूर्ण विश्व का पालन – पोषण करने वाले
509 . नरः – ऋषि नर के रूप में अवतार लेने वाले
510 . नारायणः – ऋषि नारायण के रूप में अवतार लेने वाले
511 . बली- महाबलवान
512 . गणः- गण रूप
513 . गणपतिः- गणो के पति
514 . दत्तात्रेयः- दत्तात्रेय के रूप में अवतार लेने वाले
515 . महामुनि:- मुनियों में श्रेष्ठम
व्यासो नारायणो दिव्यो भव्यो भावुकधारक: ।
श्व: श्रेयसं शिवं भद्रं भावुकं भविकं शुभम ।।70।।
516 . व्यासः – व्यास का अवतार ले कर वेदों का विभाग करने वाले
517 . नारायणः – साक्षात आदिपुरुष
518 . दिव्यः – अलौकिक
519 . भव्यः – अत्यंत सुन्दर
520 . भावुकधारकः – अपने भक्तों का सब तरह से संरक्षण करने वाले
521 . स्वः – विष्णु रूप
522 . श्रेयसम – कल्याणरूप
523 . शिवम् – मंगल विग्रह वाले
524 . भद्रम- कल्याणमय
525 . भावुकम – भावनामय
526 . भविकम – स्वयं प्रकट होने वाले
527 . शुभम – शुभ स्वरूप वाले
शुभात्मक: शुभ: शास्ता प्रशास्ता मेघनादहा ।
ब्रह्मण्यदेवो दीनानामुद्धारकरणक्षम: ।।71।।
528 . शुभात्मकः – विशुद्ध आत्मा वाले
529 . शुभः – शुभ स्वरूप
530 . शास्ता – चराचर जगत के शासक
531 . प्रशास्ता – कठोर शासन करने वाले
532 . मेघनादहा- श्री लक्ष्मण जी का स्वरूप धारण कर के मेघनाद का संहार करने वाले
533 . ब्रह्मण्यदेवः – ब्रह्म स्वरूप देव
534 . दीनानामुद्धारकरणक्षम: – दीनों का उद्धार करने में समर्थ
कृष्ण: कमलपत्राक्ष: कृष्ण: कमललोचन: ।
कृष्ण: कामी सदा कृष्ण: समस्तप्रियकारक: ।।72।।
535 . कृष्णः – श्यामवर्णवाले
536 . कमलपत्राक्ष:- कमलदल के सामान नेत्र वाले
537 . कृष्ण:- भक्तों का दुःख दूर करने वाले
538 . कमललोचन: – कमल के समान नेत्र वाले
539 . कृष्ण:- कृष्ण स्वरूप
540 . कामी- भक्तों की कामनाओं को पूर्ण करने वाले
541 . सदाकृष्ण:- सदा कृष्ण स्वरूप में विद्यमान
542 .समस्तप्रियकारक:- सबका प्रिय करने वाले
नन्दो नन्दी महानन्दी मादी मादनक: किली ।
मिली हिली गिली गोली गोलो गोलालयी गुली ।।73।।
543 . नन्दः – आनंदस्वरूप
544 . नंदी – सभी को आनंदित करने वाले
545 . महानंदी – परमानन्दमय
546 . मादी – तमोगुणी पुरुष को मदरूप होकर उन्मत करने वाले
547 . मादनकः- सांसारिक प्राणियों को मदमत्त करने वाले
548 . किली – अविनाशी परमात्म रूप
549 . मिली – छोटे – बड़े सबसे प्रेम करने वाले
550 . हिली – गोपियों के साथ महारास करने वाले
551 . गिली – प्रलयकाल में सम्पूर्ण संसार को अपने उदर में प्रविष्ट कर लेने वाले
552 . गोली – ब्रह्माण्ड रूप से विद्यमान
553 . गोलः – गौओं का पालन करने वाले
554 . गोलालयः – गोलोक में सदा निवास करने वाले
555 . गुली – सभी इन्द्रियों को अपने वश में करने वाले
गुग्गुली मारकी शाखी वट: पिप्पलक: कृती ।
म्लेक्षहा कालहर्ता च यशोदायश एव च ।।74।।
556 . गुग्गुली- विप्र तथा धेनुओं की रक्षा में तत्पर रहने वाले
557 . मारकी- पापियों को मारने में दक्ष
558 . शाखी- स्वयं एक होने पर भी अपनी अनंत विभूतियों के द्वारा संसार का उद्धार करने वाले
559 . वट:- वट वृक्ष स्वरूप
560 . पिप्पलक:- पीपल के वृक्ष में निवास करने वाले
561 . कृती – सम्पूर्ण कार्यों को करने कुशल
562 . म्लेक्षहा- धर्म मार्ग से भ्रष्ट जनों के संहार कर्ता
563 . कालहर्ता – अप्रकट रूप से काल पर शासन करने वाले
564 . यशोदा यशः – यशोदा जी के यशरूप हो कर विश्व में विख्यात
अच्युत: केशवो विष्णुर्हरि: सत्यो जनार्दन: ।
हंसो नारायणो लीलो नीलो भक्तिपरायण: ।।75।।
565 . अच्युतः – अविनाशी
566 . केशवः – सूर्य की किरण रूप केश वाले
567 . विष्णुः – सर्वव्यापी
568 . हरिः – भक्तों का दुःख हरने वाले
569 . सत्यः – सत्य स्वरूप
570 . जनार्दनः – प्राणियों के दुःख का नाश करने वाले
571 . हंसः – विवेक ज्ञान से संपन्न
572 . नारायणः – जल में शयन करने वाले
573 . लीलः – निर्गुण तथा निराकार होते हुए भी लीलाविग्रह धारण करने वाले
574 . नीलः – नीलकमल के समान श्याम वर्ण वाले
575 . भक्तिपरायणः – भक्ति में अनुरक्त रहने वाले
जानकीवल्लभो रामो विरामो विघ्ननाशन: ।
सहस्रांशुर्महाभानुर्वीरबाहुर्महोदधि: ।।76।।
576 . जानकीवल्लभः – सीताजी के प्राणप्रिय
577 . रामः – मुनियों के ह्रदय में रमण करने वाले
578 . विरामः – सांसारिक दुःखों से संतप्त प्राणियों के लिए विश्राम स्थल
579 . विघ्ननाशन:- भक्तों के विघ्नों के निवारणकर्ता
580 . सहस्त्रांशुः – सूर्य के रूप में विश्व को प्रकाश देने वाले
581 . महाभानुः – महासूर्यरूप
582 . वीरबाहुः – अपरिमेय बल से युक्त भुजाओं वाले
583 . महोदधिः – महासमुद्रस्वरूप
समुद्रोsब्धिरकूपार: पारावार: सरित्पति: ।
गोकुलानन्दकारी च प्रतिज्ञापरिपालक: ।।77।।
584 . समुद्रः – समुद्र स्वरूप
585 . अब्धिः – फलस्वरूप
586 . अकूपारः- कूर्म रूप धारण करने वाले
587 . पारावारः – आदि – अंत से विहीन
588 . सरित्पतिः – नदियों के स्वामी
589 . गोकुलानन्दकारी- गोवंश को आनंदित करने वाले
590 . प्रतिज्ञापरिपालक:- अपनी प्रतिज्ञा का पालन करने वाले
सदाराम: कृपारामो महारामो धनुर्धर: ।
पर्वत: पर्वताकारो गयो गेयो द्विजप्रिय: ।।78।।
591 . सदाराम:- सदा सुप्रसन्न रहने वाले
592 . कृपारामः – दिनों पर कृपा करने में आनंदित होने वाले
593 . महारामः – महानंदस्वरूप
594 . धनुर्धर: – धनुष धारण करने वाले
595 . पर्वत:- पर्वत स्वरूप
596 . पर्वताकारः – पर्वत के समान आकार वाले
597 . गयः- गुणानुवाद स्वरूप
598 . गेयः- गुणगान किये जाने योग्य
599 . द्विजप्रिय:- द्विजों से प्रीति रखने वाले
कंबलाश्वतरो रामो रामायणप्रवर्तक: ।
द्यौदिवौ दिवसो दिव्यो भव्यो भाविभयापह: ।।79।।
600 . कंबलाश्वतरः – कम्बल तथा अश्वतर नागों के रूप में अवतार ग्रहण करने वाले
601 . रामः – राम के रूप में अवतीर्ण
602 . रामायणप्रवर्तक: – रामायण का प्रवर्तन करने वाले वाल्मीकि स्वरूप
603 . द्यौ – आकाश रूप में सर्वत्र व्याप्त
604 . दिवः – स्वर्ग रूप
605 . दिवसः – दिवस स्वरूप
606 . दिव्यः – अलौकिक
607 . भव्यः – परम सुन्दर
608 . भाविभयापह: – भविष्य में होने वाले भयों के विनाशक
पार्वतीभाग्यसहितो भ्राता लक्ष्मीविलासवान ।
विलासी साहसी सर्वी गर्वी गर्वितलोचन: ।।80।।
609 . पार्वतीभाग्यसहितः – भस्मासुर का विनाश करके पार्वती के सौभाग्य की रक्षा करने वाले
610 . भ्राता – सभी के बंधुस्वरूप
611 . लक्ष्मीविलासवान – लक्ष्मी के साथ में विहार करने वाले
612 . विलासी – विलास प्रिय
613 . साहसी – साहस से संपन्न
614 . सर्वी – सभी रूपों से व्याप्त रहने वाले
615 . गर्वी – गर्वमय
616 . गर्वितलोचनः – मदयुक्त नेत्रों वाले
मुरारिर्लोकधर्मज्ञो जीवनो जीवनान्तक: ।
यमो यमादिर्यमनो यामी यामविधायक: ।।81।।
617 . मुरारिः – मुर नामक दैत्य का संहार करने वाले
618 . लोक धर्मज्ञः – सभी लौकिक धर्मों के ज्ञाता
619 . जीवनः – जीवनस्वरूप
620 . जीवनान्तकः – काल रूप से जीवन का अंत करने वाले
621 . यमः – यमरूप
622 . यमारिः – यमराज के भी शत्रु
623 . यमनः – भक्तों के दुःखों का नाश करने वाले
624 . यामी – शांत प्रकृति वाले
625 . याम विधायकः – प्रहार का विधान करने वाले
वंसुली पांसुली पांसुः पाण्डुरर्जुनवल्लभ: ।
ललिताचन्द्रिकामाली माली मालाम्बुजाश्रय: ।।82।।
626 . वंसुली – रुक्मणि आदि के साथ विहार करने वाले
627 . पांसुली – अन्य गोपिकाओं के साथ में भी विहार करने वाले
628 . पांसुः – व्रज रेणु के रूप में विद्यमान
629 . पाण्डुः – पाण्डु स्वरूप
630 . अर्जुनवल्लभः – अर्जुन के प्रिय सखा
631 . ललिताचन्द्रिकामाली- उज्जवल चन्द्रिका के समान वैजयंती की माला धारण करने वाले
632 . माली- माला से अतिशय प्रेम करने वाले
633 . मालाम्बुजाश्रय: – कमल पुष्पों की माला धारण करने वाले
अम्बुजाक्षो महायक्षो दक्षश्चिन्तामणिप्रभु: ।
मणिर्दिनमणिश्चैव केदारो बदराश्रय: ।।83।।
634 . अम्बुजाक्षः – कमल के समान नेत्र वाले
635 . महायक्षः – महान यक्ष स्वरूप
636 . दक्षः – सभी कार्यों में कुशल
637 . चिन्तामणिः – चिंतामणि स्वरूप
638 . प्रभुः – चराचर सम्पूर्ण जगत के स्वामी
639 . मणिः – सभी प्राणियों के लिए मणि स्वरूप
640 . दिनमणिः – सूर्य रूप
641 . केदारः – केदार स्वरूप
642 . बदराश्रयः – बद्रीनारायण के नाम से विख्यात
बदरीवनसम्प्रीतो व्यास: सत्यवतीसुत: ।
अमरारिनिहन्ता च सुधासिन्धुर्विधूदय: ।।84।।
643 . बदरीवनसम्प्रीतः – बदरीवन से अत्यंत प्रेम करने वाले
644 . व्यासः – वेद विभाग कर्ता
645 . सत्यवतीसुत: – सत्यवती के पुत्र
646 . अमरारिनिहन्ता – देवताओं के शत्रुओं का वध करने वाले
647 . सुधा सिन्धुः – अमृत के सागर
648 . विधूदयः – उदीयमान चंद्र के समान कांति वाले
चन्द्रो रवि: शिव: शूली चक्री चैव गदाधर: ।
श्रीकर्ता श्रीपति: श्रीद: श्रीदेवो देवकीसुत: ।।85।।
649 . चन्द्रः – चंद्र स्वरूप
650 . रविः – सूर्यस्वरूप
651 . शिवः – भगवान शिव
652 . शूली – त्रिशूल धारण करने वाले
653 . चक्री – सुदर्शन चक्र धारण करने वाले
654 . गदाधरः – गदा धारण करने वाले
655 . श्रीकर्ता – लक्ष्मी की वृद्धि करने वाले
656 . श्रीपतिः – लक्ष्मी पति
657 . श्रीदः – लक्ष्मी प्रदान करने वाले
658 . श्रीदेवः – लक्ष्मी जी के पूजनीय
659 . देवकी सुतः – देवकी के पुत्र रूप में अवतीर्ण
श्रीपति: पुण्डरीकाक्ष: पद्मनाभो जगत्पति: ।
वासुदेवोsप्रमेयात्मा केशवो गरुडध्वज: ।।86।।
660 . श्रीपतिः – लक्ष्मी के स्वामी
661 . पुण्डरीकाक्ष: – कमल के समान नेत्र वाले
662 . पद्मनाभः – हृदयकमल के मध्य निवास करने वाले
663 . जगत्पतिः – सम्पूर्ण संसार के पति
664 . वासुदेवः – श्री वासुदेव जी के पुत्र के रूप में अवतार लेने वाले
665 . अप्रमेयात्मा – अमेय आत्मा वाले
666 . केशवः – अपने अंश से क ( ब्रह्मा ) तथा ईश ( शंकर ) को उत्पन्न करने वाले
667 . गरुडध्वज: – गरुड चिह्न से अंकित रथ – ध्वजा वाले
नारायण: परं धाम देवदेवो महेश्वर: ।
चक्रपाणि: कलापूर्णो वेदवेद्यो दयानिधि: ।।87।।
668 . नारायणः – मनुष्य समूह में गुप्त रूप से विद्यमान
669 . परम धाम – सर्वोत्तम स्थान रूप
670 . देवदेवः – देवताओं के भी देवता
671 . महेश्वरः – सर्वश्रेष्ठ ईश्वर
672 . चक्रपाणिः – हाथ में सुदर्शन चक्र धारण करने वाले
673 . कालपूर्णः – अपनी समग्र कलाओं से पूर्ण
674 . वेदवेद्यः – वेदों से जानने योग्य
675 . दयानिधिः- दयानिधान
भगवान सर्वभूतेशो गोपाल: सर्वपालक: ।
अनन्तो निर्गुणोsनन्तो निर्विकल्पो निरंजन: ।।88।।
676 . भगवान् – सम्पूर्ण ऐश्वर्यों से संपन्न
677 . सर्वभूतेशः- सभी प्राणियों के स्वामी
678 . गोपाल:- गौओं का पालन करने वाले
679 . सर्वपालक:- सबका पालन करने वाले
680 . अनन्तः – अपरिमित
681 . निर्गुणः – तीनों गुणों से परे
682 . अनन्तः – शेषरूप में अवतीर्ण
683 . निर्विकल्पः – सभी प्रकार के संकल्पों से रहित
684 . निरञ्जनः – निर्विकार
निराधारो निराकारो निराभासो निराश्रय: ।
पुरुष: प्रणवातीतो मुकुन्द: परमेश्वर: ।।89।।
685 . निराधारः – किसी भी आधार की अपेक्षा ना रखने वाले
686 . निराकारः – आकारविहीन
687 . निराभासः- आभास रहित
688 . निराश्रयः – आश्रय बंधन से मुक्त
689 . पुरुषः – अनादि पुरुष स्वरूप
690 . प्रणवातीतः – ॐकार से भी परे
691 . मुकुन्दः – भक्ति रस देने वाले
692 . परमेश्वरः – महानतम ईश्वर
क्षणावनि: सर्वभौमो वैकुण्ठो भक्तवत्सल: ।
विष्णुर्दामोदर: कृष्णो माधवो मथुरापति: ।।90।।
693 . क्षणावनि:- स्वयं पृथ्वी रूप
694 . सार्वभौमः- सम्पूर्ण संसार के एकमात्र शासक
695 . वैकुण्ठः – परम धाम स्वरूप
696 . भक्तवत्सलः – अपने भक्तों पर वात्सल्य रखने वाले
697 . विष्णुः – सर्वत्र गमन करने वाले
698 . दामोदरः – यशोदा जी द्वारा रस्सी से बंधे हुए उदर प्रदेश वाले
699 . कृष्णः – श्याम वर्ण वाले
700 . माधवः – लक्ष्मी जी के पति
701 . मथुरापतिः – मथुरापुरी के अधिपति
देवकीगर्भसम्भूतयशोदावत्सलो हरि: ।
शिव: संकर्षण: शंभुर्भूतनाथो दिवस्पति: ।।91।।
702 . देवकीगर्भसम्भूतः – देवकी के गर्भ से प्रादुर्भूत
703 . यशोदावत्सलः – यशोदा को अतिप्रिय
704 . हरिः – अपने भक्तों का दुःख हरण करने वाले
705 . शिवः – कल्याणस्वरूप
706 . सङ्कर्षणः – भक्तों की अल्प भक्ति के द्वारा भी अति शीघ्र आकर्षित होने वाले
707 . शम्भुः – संसार के कल्याण करने के निमित्त अवतीर्ण होने वाले
708 . भूतनाथः – चराचर प्राणियों के एकमात्र नाथ
709 . दिवस्पतिः – स्वर्गलोक के स्वामी
अव्यय: सर्वधर्मज्ञो निर्मलो निरुपद्रव: ।
निर्वाणनायको नित्यो नीलजीमूतसन्निभ: ।।92।।
710 – अव्ययः – अविनाशी
711 . सर्वधर्मज्ञः – सभी धर्मों के ज्ञाता
712 . निर्मलः – विकार रहित
713 . निरुपद्रवः- विघ्नों से सब तरह से मुक्त
714 . निर्वाणनायकः – मोक्ष के स्वामी
715 . नित्यः – सनातन
716 . नीलजीमूतसन्निभः – नीले मेघ के समान आभा वाले
कलाक्षयश्च सर्वज्ञ: कमलारूपतत्पर: ।
ह्रषीकेश: पीतवासा वसुदेवप्रियात्मज: ।।93।।
717 . कलाक्षयः – स्वेच्छा से अपनी कलाओं को समेत लेने वाले
718 . सर्वज्ञः – सब कुछ जानने वाले
719 . कमलारूपतत्पर: – लक्ष्मी जी के स्वरूप की उपासना में तत्पर रहने वाले
720 . ह्रषीकेश:- इन्द्रियों के स्वामी
721 . पीतवासः- पीत वर्ण के वस्त्रों को धारण करने वाले
722 . वसुदेवप्रियात्मज:- वसुदेव के प्रिय पुत्र
नन्दगोपकुमारार्यो नवनीताशन: प्रभु: ।
पुराणपुरुष: श्रेष्ठः शड़्खपाणि: सुविक्रम: ।।94।।
723 . नन्दगोपकुमारार्यः- नन्द जी के श्रेष्ठ पुत्र
724 . नवनीताशन:- नवनीत भोजी
725 . प्रभु: – सम्पूर्ण जगत के स्वामी
726 . पुराणपुरुष:- आदि पुरुष
727 . श्रेष्ठः – सर्वोत्तम
728 . शड़्खपाणि:- हाथ में शंख धारण करने वाले
729 . सुविक्रम:- महान पराक्रम वाले
अनिरूद्धश्चक्ररथ: शार्ड़्गपाणिश्चतुर्भुज: ।
गदाधर: सुरार्तिघ्नो गोविन्दो नन्दकायुध: ।।95।।
730 . अनिरुद्धः – अवरोध रहित गति वाले
731 . चक्ररथः – महाभारत के युद्ध में अपने हाथ पर रथ चक्र उठाने वाले
732 . शार्ड़्गपाणिः- हाथ में शार्ड़्ग नामक धनुष धारण करने वाले
733 . चतुर्भुजः – चार भुजाओं से संपन्न
734 . गदाधरः – हाथ में कौमोदकी नामक गदा धारण करने वाले
735 . सुरार्तिघ्नः – देवगणों का कष्ट दूर करने वाले
736 . गोविन्दः – गौओं के रक्षक
737 . नन्दकायुधः – नन्दक नामक खड्ग धारण करने वाले
वृन्दावनचर: सौरिर्वेणुवाद्यविशारद: ।
तृणावर्तान्तको भीमसाहसो बहुविक्रम: ।।96।।
738 . वृन्दावनचर: – वृन्दावन में विहार करने वाले
739 . शौरिः – शूरसेनात्मज वसुदेव जी के पुत्र
740 . वेणुवाद्यविशारदः – वेणु वादन में पूर्ण कुशल
741 . तृणावर्तान्तकः – तृणावर्त नामक दैत्य का विनाश करने वाले
742 . भीमः – दुष्टों के लिए भयंकर
743 . साहसः – साहस संपन्न
744 . बहुविक्रमः – अपरिमित पराक्रम वाले
शकटासुरसंहारी बकासुरविनाशन: ।
धेनुकासुरसड़्घात: पूतनारिर्नृकेसरी ।।97।।
745 . शकटासुरसंहारी – शकटासुर के संहारक
746 . बकासुरविनाशन:- बकासुर के विनाशक
747 . धेनुकासुरसड़्घात: – धेनुकासुर का वध करने वाले
748 . पूतनारिः- पूतना नाम वाली राक्षसी के शत्रु
749 . नृकेसरी – मनुष्यों में सिंह के समान बलवान
पितामहो गुरु: साक्षी प्रत्यगात्मा सदाशिव: ।
अप्रमेय: प्रभु: प्राज्ञोsप्रतर्क्य: स्वप्नवर्धन: ।।98।।
750 . पितामहः –ब्रह्मास्वरूप
751 . गुरुः – सम्पूर्ण संसार के मार्गदर्शक
752 . साक्षी – सभी प्राणियों के शुभाशुभ कर्मों के दृष्टा
754 . प्रत्यगात्मा – जीवों के अन्तः करण में सदा विराजमान रहने वाले
754 . सदाशिवः – नित्य मंगलमय
755 . अप्रमेयः – असीमित
756 . प्रभुः – सबके स्वामी
757 . प्राज्ञः – विशिष्ट ज्ञानी
758 . अप्रतर्क्य:- तर्कों से ज्ञात न होने वाले
759 . स्वप्नवर्धन:- सृष्टि प्रपंच का विस्तार करने वाले
धन्यो मान्यो भवो भावो धीर: शान्तो जगदगुरु: ।
अन्तर्यामीश्वरो दिव्यो दैवज्ञो देवता गुरु: ।।99।।
760 . धन्यः – ऐश्वर्यशाली
761 . मान्यः – सभी के माननीय
762 . भवः – संसारस्वरूप
763 . भावः – भावनामय
764 . धीरः – धैर्यशाली
765 . शान्तः – शांत स्वभाव वाले
766 . जगद्गुरुः – संसार के गुरु
767 . अन्तर्यामी – सबके ह्रदय में निवास करने वाले
768 . ईश्वरः – सब कुछ करने में समर्थ
769 . दिव्यः – अलौकिक
770 . दैवज्ञः – भविष्यज्ञाता
771 . देवतागुरुः – देवताओं के भी गुरु
क्षीराब्धिशयनो धाता लक्ष्मीवाँल्लक्ष्मणाग्रज: ।
धात्रीपतिरमेयात्मा चन्द्रशेखरपूजित: ।।100।।
772 . क्षीराब्धिशयनः- क्षीरसागर में शयन करने वाले
773 . धाता – संसार के रक्षक
774 . लक्ष्मीवान – लक्ष्मीपति
775 . लक्ष्मणाग्रजः – लक्ष्मण जी के ज्येष्ठ भ्राता
776 . धात्रीपतिः- देवी वसुंधरा के पति
777 . अमेयात्मा – अपरिमेय आत्मा वाले
778 . चन्द्रशेखरपूजितः – भगवान शिव के द्वारा पूजित
लोकसाक्षी जगच्चक्षु: पुण्य़चारित्रकीर्तन: ।
कोटिमन्मथसौन्दर्यो जगन्मोहनविग्रह: ।।101।।
779 . लोकसाक्षी – सम्पूर्ण लोक को देखने वाले
780 . जगच्चक्षु:- संसार के नेत्र रूप
781 . पुण्य़चारित्रकीर्तन: – भक्तों के द्वारा कीर्तित पवित्र चरित्र वाले
782 . कोटिमन्मथसौन्दर्यः – करोड़ों कामदेवों के समान सौंदर्यशाली
783 . जगन्मोहनविग्रह:- संसार को मोहित करने में समर्थ विग्रह वाले
मन्दस्मिततमो गोपो गोपिकापरिवेष्टित: ।
फुल्लारविन्दनयनश्चाणूरान्ध्रनिषूदन: ।।102।।
784 . मन्दस्मिततमः – मन को हरण करने वाली मंद मुस्कान से युक्त
785 . गोपः – गोवंश के रक्षक
786 . गोपिकापरिवेष्टित:- गोपिकाओं से आवृत
787 . फुल्लारविन्दनयनः- विकसित कमल के समान नेत्र वाले
788 . चाणूरान्ध्रनिषूदन:- चाणूर नामक अन्ध्र जाति के वीर का वध करने वाले
इन्दीवरदलश्यामो बर्हिबर्हावतंसक: ।
मुरलीनिनदाह्लादो दिव्यमाल्याम्बराश्रय: ।।103।।
789 . इन्दीवरदलश्यामः- नीलकमल के समान श्याम वर्ण वाले
790 . बर्हिबर्हावतंसक:- मयूर के पंखों का मुकुट धारण करने वाले
791 . मुरलीनिनदाह्लादः – मुरली की सुमधुर ध्वनि से प्रसन्न होने वाले
792 . दिव्यमाल्याम्बराश्रय:- दिव्य माला तथा वस्त्रों को धारण करने वाले
सुकपोलयुग: सुभ्रूयुगल: सुललाटक: ।
कम्बुग्रीवो विशालाक्षो लक्ष्मीवान शुभलक्षण: ।।104।।
793 . सुकपोलयुग:- सुन्दर कपोलद्वय वाले
794 . सुभ्रूयुगल:- दो सुन्दर भौहों से सुशोभित
795 . सुललाटक: – सुन्दर ललाट से युक्त
796 . कम्बुग्रीवः- शंख के समान ग्रीवा वाले
797 . विशालाक्षः- विशाल नेत्रों वाले
798 . लक्ष्मीवान- लक्ष्मी संपन्न
799 . शुभलक्षण: – शुभ लक्षणों से युक्त
पीनवक्षाश्चतुर्बाहुश्चतुर्मूर्तीस्त्रिविक्रम: ।
कलंकरहित: शुद्धो दुष्टशत्रुनिबर्हण: ।।105।।
800 . पीनवक्षाः – स्थूल वक्ष स्थल वाले
801 . चतुर्बाहुः – चार भुजाओं से युक्त
802 . चतुर्मूर्तिः – श्रीकृष्ण , बलराम , प्रद्युम्न और अनिरुद्ध इन चार विग्रह वाले
803 . त्रिविक्रमः – वामनावतार में दैत्यराज बलि से छल करके तीन पग में तीनो लोक और उसका शरीर नाप लेने वाले
804 . कलंकरहितः – निष्कलंक
805 . शुद्धः – पवित्र
806 . दुष्टशत्रुनिबर्हण:- दुष्ट शत्रुओं का संहार करने वाले
किरीटकुण्डलधर: कटकाड़्गदमण्डित: ।
मुद्रिकाभरणोपेत: कटिसूत्रविराजित: ।।106।।
807 . किरीटकुण्डलधर:- अपने मस्तक पर मुकुट और कानों में कुण्डल धारण करने वाले
808 . कटकाड़्गदमण्डित: – कंकण , विजायठ आदि आभूषणों से शोभित
809 . मुद्रिकाभरणोपेत:- अंगूठी आदि आभूषणों से विभूषित
810 . कटिसूत्रविराजित:- करधनी से विभूषित
मंजीररंजितपद: सर्वाभरणभूषित: ।
विन्यस्तपादयुगलो दिव्यमंगलविग्रह: ।।107।।
811 . मंजीररंजितपद:- पैजनी से सुशोभित चरणों वाले
812 . सर्वाभरणभूषित: – सभी प्रकार के आभूषणों से अलंकृत
813 . विन्यस्तपादयुगलः- अपने दोनों चरणों को सुव्यवस्थित रूप से रखने वाले
814 . दिव्यमंगलविग्रह:- कांतिमान और मंगलमय विग्रह वाले
गोपिकानयनानन्द: पूर्णश्चन्द्रनिभानन: ।
समस्तजगदानन्दसुन्दरो लोकनन्दन: ।।108।।
815 . गोपिकानयनानन्द:- गोपिकाओं के नेत्रों को आनंद देने वाले
816 . पूर्णचन्द्रनिभानन: – पूर्णचन्द्र के समान मुख वाले
817 . समस्तजगदानन्दः – सम्पूर्ण जगत को आनंदित करने वाले
818 . सुन्दरः – सौन्दर्यमय
819 . लोकनन्दन:- लोकों के आनंददाता
यमुनातीरसंचारी राधामन्मथवैभव: ।
गोपनारीप्रियो दान्तो गोपीवस्त्रापहारक: ।।109।।
820 . यमुनातीरसंचारी- यमुना के तट पर विचरण करने वाले
821 . राधामन्मथवैभव: – अपनी प्रियतमा राधा के वैभव स्वरूप
822 . गोपनारीप्रियः- गोपांगनाओं के प्रिय
823 . दान्तः- उदार
824 . गोपीवस्त्रापहारक: – गोपिकाओं के वस्त्र का हरण करने वाले
श्रृंगारमूर्ति: श्रीधामा तारको मूलकारणम ।
सृष्टिसंरक्षणोपाय: क्रूरासुरविभंजन ।।110।।
825 . श्रृंगारमूर्ति: – श्रृंगार विग्रह
826 . श्रीधामा- शोभा के धाम
827 . तारकः- दीनों का उद्धार करने वाले
828 . मूलकारणम – सृष्टि के मूल कारण
829 . सृष्टिसंरक्षणोपाय:- सृष्टि के संरक्षण का उपाए देने वाले
830 . क्रूरासुरविभंजनः – क्रूर नामक असुर का नाश करने वाले
नरकासुरहारी च मुरारिर्वैरिमर्दन: ।
आदितेयप्रियो दैत्यभीकरश्चेन्दुशेखर: ।।111।।
831 . नरकासुरहारी- नरकासुर का संहार करने वाले
832 . मुरारिः – मुर नामक असुर के शत्रु
833 . वैरिमर्दनः – शत्रुओं का दमन करने वाले
834 . आदितेयप्रियः – देवगणों के प्रिय
835 . दैत्यभीकरः – दैत्यों को भय देने वाले
836 . इन्दुशेखर:- शिव रूप में भाल पर चन्द्रमा को धारण करने वाले
जरासन्धकुलध्वंसी कंसाराति: सुविक्रम: ।
पुण्यश्लोक: कीर्तनीयो यादवेन्द्रो जगन्नुत: ।।112।।
837 . जरासन्धकुलध्वंसी- जरासंध के वंश का विनाश करने वाले
838 . कंसाराति:- कंस के शत्रु
839 . सुविक्रम: – महान पराक्रम वाले
840 . पुण्यश्लोक:- पवित्र कीर्ति वाले
841 . कीर्तनीयः – प्रसंशनीय
842 . यादवेन्द्रः- यदुवंशियों में श्रेष्ठ
843 . जगन्नुत:- सम्पूर्ण जगत से नमस्कृत
रुक्मिणीरमण: सत्यभामाजाम्बवतीप्रिय: ।
मित्रविन्दानाग्नजितीलक्ष्मणासमुपासित: ।।113।।
844 . रुक्मिणीरमण:- रुक्मणि के पति
845 . सत्यभामाजाम्बवतीप्रिय: – सत्यभामा और जांबवती के प्रिय
846 . मित्रविन्दानाग्नजितीलक्ष्मणासमुपासित:- मित्रविन्दा , नाग्नजिती तथा लक्ष्मणा के द्वारा सेवित
सुधाकरकुले जातोsनन्तप्रबलविक्रम: ।
सर्वसौभाग्यसम्पन्नो द्वारकायामुपस्थित: ।।114।।
847 . सुधाकरकुले जातः – चंद्रवंश में आविर्भूत
848 . अनन्तप्रबलविक्रम:- अपरिमित बल तथा पराक्रम वाले
849 . सर्वसौभाग्यसम्पन्नः – सभी ऐश्वर्यों से परिपूर्ण
850 . द्वारकायामुपस्थित:- द्वारकापुरी में निवास करने वाले
भद्रासूर्यसुतानाथो लीलामानुषविग्रह: ।
सहस्रषोडशस्त्रीशो भोगमोक्षैकदायक: ।।115।।
851 . भद्रासूर्यसुतानाथः- भद्रा तथा सूर्य पुत्री यमुना के पति
852 . लीलामानुषविग्रह: – लीला करने के लिए मानव देह धारण करने वाले
853 . सहस्रषोडशस्त्रीशः- सोलह हज़ार स्त्रियों के पति
854 . भोगमोक्षैकदायक: – भोग तथा मोक्ष के एकमात्र दाता
वेदान्तवेद्य: संवेद्यो वैद्यो ब्रह्माण्डनयक: ।
गोवर्धनधरो नाथ: सर्वजीवदयापर: ।।116।।
855 . वेदान्तवेद्य:- वेदांत के द्वारा जाने जा सकने वाले
856 . संवेद्यः – विशुद्ध ज्ञान के द्वारा ज्ञेय
857 . वैद्यः – सभी विद्याओं के ज्ञाता
858 . ब्रह्माण्ड नायकः – सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के नायक
859 . गोवर्धनधरः- गोवर्धन पर्वत को धारण करने वाले
860 . नाथ:- समस्त प्राणियों के प्रभु
861 . सर्वजीवदयापर:- सभी जीवों पर दया करने के लिए तत्पर
मूर्तिमान सर्वभूतात्मा आर्तत्राणपरायण: ।
सर्वज्ञ: सर्वसुलभ: सर्वशास्त्रविशारद: ।।117।।
862 . मूर्तिमान- विग्रहमय
863 . सर्वभूतात्मा- सभी प्राणियों में आत्मा रूप से व्याप्त
864 . आर्तत्राणपरायण: – दुःखियों की रक्षा में सदा तत्पर
865 . सर्वज्ञ:- सब कुछ जान ने वाले
866 . सर्वसुलभ:- सभी के लिए सहजरूप में सुलभ
867 . सर्वशास्त्रविशारद: – सभी शास्त्रों के ज्ञाता
षडगुणैश्चर्यसम्पन्न: पूर्णकामो धुरन्धर: ।
महानुभाव: कैवल्यदायको लोकनायक: ।।118।।
868 . षडगुणैश्चर्यसम्पन्न:- छः गुणरूप ऐश्वर्यों से परिपूर्ण
869 . पूर्णकामः- पूर्ण मनोरथ वाले
870 . धुरन्धर:- पृथ्वी का भार धारण करने वाले
871 . महानुभाव:- महान ऐश्वर्य वाले
872 . कैवल्यदायकः- मोक्षदाता
873 . लोकनायक:- समस्त लोकों के स्वामी
आदिमध्यान्तरहित: शुद्धसात्त्विकविग्रह: ।
असमानः समस्तात्मा शरणागतवत्सल: ।।119।।
874 . आदिमध्यान्तरहित:- आदि , मध्य तथा अंत से रहित
875 . शुद्धसात्त्विकविग्रह:- शुद्ध एवं सात्विक विग्रह वाले
876 . असमानः – असाधारण
877 . समस्तात्मा- अखिलात्मा
878 . शरणागतवत्सल: – शरणागत से अतिशय स्नेह करने वाले
उत्पत्तिस्थितिसंहारकारणं सर्वकारणम ।
गंभीर: सर्वभावज्ञ: सच्चिदानन्दविग्रह: ।।120।।
879 . उत्पत्तिस्थितिसंहारकारणं- संसार के सृजन , पालन तथा संहार के कारण
880 . सर्वकारणम- सबके आदि कारण
881 . गंभीर: – गंभीर स्वभाव वाले
882 . सर्वभावज्ञ:- सभी के भावों को जानने वाले
883 . सच्चिदानन्दविग्रह:- सत – चित तथा आनंदस्वरूप
विष्वक्सेन: सत्यसन्ध: सत्यवान्सत्यविक्रम: ।
सत्यव्रत: सत्यसंज्ञ सर्वधर्मपरायण: ।।121।।
884 . विष्वक्सेन:- युद्ध के लिए उद्योग मात्र से शत्रु सेना को चारों ओर तितर – बितर कर देने वाले
885 . सत्यसन्ध:- दृढ़प्रतिज्ञ
886 . सत्यवान – सत्यवादी
887 . सत्यविक्रम:- सत्यरूप पराक्रम वाले
888 . सत्यव्रत:- सत्यव्रती
889 . सत्यसंज्ञ- सत्य नाम वाले
890 . सर्वधर्मपरायण:- सभी धर्मों में नियत
आपन्नार्तिप्रशमनो द्रौपदीमानरक्षक: ।
कन्दर्पजनक: प्राज्ञो जगन्नाटकवैभव: ।।122।।
891 . आपन्नार्तिप्रशमनः – विपत्ति में पड़े प्राणियों के कष्ट का निवारण करने वाले
892 . द्रौपदीमानरक्षक:- द्रौपदी की मर्यादा की रक्षा करने वाले
893 . कन्दर्पजनक:- कामदेव के जन्मदाता
894 . प्राज्ञः – विशिष्ट ज्ञानवान
895 . जगन्नाटकवैभव:- संसार रूप नाटक के वैभव
भक्तिवश्यो गुणातीत: सर्वैश्वर्यप्रदायक: ।
दमघोषसुतद्वेषी बाण्बाहुविखण्डन: ।।123।।
896 . भक्तिवश्यः- भक्ति से वश में होने वाले
897 . गुणातीत:- गुणों से परे
898 . सर्वैश्वर्यप्रदायक:- सभी ऐश्वर्यों के प्रदाता
899 . दमघोषसुतद्वेषी- दमघोष के पुत्र शिशुपाल के शत्रु
900 . बाण्बाहुविखण्डन: – बाणासुर की भुजाओं को काट डालने वाले
भीष्मभक्तिप्रदो दिव्य: कौरवान्वयनाशन: ।
कौन्तेयप्रियबन्धुश्च पार्थस्यन्दनसारथि: ।।124।।
901 . भीष्मभक्तिप्रदः- पितामह भीष्म को भक्ति प्रदान करने वाले
902 . दिव्य:- देवस्वरूप
903 . कौरवान्वयनाशन:- कौरव वंश का नाश करने वाले
904 . कौन्तेयप्रियबन्धुः – अर्जुन के प्रिय सखा
905 . पार्थस्यन्दनसारथि:- अर्जुन का रथ हांकने वाले
नारसिंहो महावीरस्तम्भजातो महाबल: ।
प्रह्लादवरद: सत्यो देवपूज्यो भयंकर: ।।125।।
906 . नारसिंहः – भक्त रक्षार्थ नृसिंह का रूप धारण करने वाले
907 . महावीरः- महा पराक्रमी
908 . स्तम्भजातः – हिरण्यकशिपु के वध के लिए खम्भे से प्रकट होने वाले
909 . महाबलः – महान बलशाली
910 . प्रह्लादवरद:- प्रह्लाद को वर देने वाले
911 . सत्यः – सत्यस्वरूप
912 . देवपूज्यः- देवताओं के पूजनीय
913 . अभयंकर: – भक्तों को अभय प्रदान करने वाले
उपेन्द्र: इन्द्रावरजो वामनो बलिबन्धन: ।
गजेन्द्रवरद: स्वामी सर्वदेवनमस्कृत: ।।126।।
914 . उपेन्द्र:- देवराज इन्द्र के अनुज
915 . इन्द्रावरजः- इन्द्र के अनुज रूप में आविर्भूत
916 . वामनः – बलि को छलने हेतु वामन रूप में अवतीर्ण
917 . बलिबन्धन: – दैत्यराज बलि को बांधनेवाले
918 . गजेन्द्रवरद:- गजेंद्र को वर देने वाले
919 . स्वामी- तीनों भुवनों के पति
920 . सर्वदेवनमस्कृत: – सभी देवताओं से नमस्कृत
शेषपर्यड़्कशयनो वैनतेयरथो जयी ।
अव्याहतबलैश्वर्यसम्पन्न: पूर्णमानस: ।।127।।
921 . शेषपर्यड़्कशयनः – शेष शैय्या पर शयन करने वाले
922 . वैनतेयरथः – गरुड़ वाहनः
923 . जयी- सर्वत्र विजय प्राप्त करने वाले
924 . अव्याहतबलैश्वर्यसम्पन्न:- अखंडित बल तथा ऐश्वर्य से संपन्न
925 . पूर्णमानस:- पूर्ण कामनाओं वाले
योगेश्वरेश्वर: साक्षी क्षेत्रज्ञो ज्ञानदायक: ।
योगिह्रत्पड़्कजावासो योगमायासमन्वित: ।।128।।
926 . योगेश्वरेश्वर:- योगेश्वरों के भी ईश्वर
927 . साक्षी- सम्पूर्ण संसार के दृष्टा
928 . क्षेत्रज्ञः- समस्त प्रकृति रूप शरीर को जानने वाले
929 . ज्ञानदायक: – ज्ञान देने वाले
930 . योगिह्रत्पड़्कजावासः- योगियों के ह्रदय कमल में निवास करने वाले
931 . योगमायासमन्वित: – योगमाया से युक्त
नादबिन्दुकलातीतश्चतुर्वर्गफलप्रद: ।
सुषुम्नामार्गसंचारी सन्देहस्यान्तरस्थित: ।।129।।
932 . नादबिन्दुकलातीतः- नाद – बिंदु तथा कलाओं से भी परे
933 . चतुर्वर्गफलप्रद: – धर्म, अर्थ , काम और मोक्ष- इन चारों पुरुषार्थों के दाता
934 . सुषुम्नामार्गसंचारी- सुषुम्ना नाड़ी के मार्ग में विचरण करने वाले
935 . देहस्यान्तरस्थित:- प्रत्येक जीव के शरीर में विद्यमान
देहेन्द्रियमन: प्राणसाक्षी चेत:प्रसादक: ।
सूक्ष्म: सर्वगतो देहीज्ञानदर्पणगोचर: ।।130।।
936 . देहेन्द्रियमन: प्राणसाक्षी- देह , इन्द्रिय , मन तथा प्राण के साक्षी
937 . चेत:प्रसादक: – चित्त को प्रसन्न करने वाले
938 . सूक्ष्म:- अणु से भी अणु
939 . सर्वगतः – सर्वत्र व्याप्त रहने वाले
940 . देही- शरीर धारण करने वाले
941 . ज्ञानदर्पणगोचर: – ज्ञान रुपी दर्पण के द्वारा प्रत्यक्ष होने वाले
तत्त्वत्रयात्मकोsव्यक्त: कुण्डलीसमुपाश्रित: ।
ब्रह्मण्य: सर्वधर्मज्ञ: शान्तो दान्तो गतक्लम: ।।131।।
942 . तत्त्वत्रयात्मकः – सत्त्व आदि त्रिगुणात्मक स्वरूप वाले
943 . अव्यक्त:- नाम एवं रूप से परे
944 . कुण्डलीसमुपाश्रित: – मूलाधार स्थित कुंडलिनी में निवास करने वाले
945 . ब्रह्मण्य: – तप , वेद , ब्राह्मण तथा ज्ञान के रक्षक
946 . सर्वधर्मज्ञ:- सभी धर्मों के ज्ञाता
947 . शान्तः – शांतिस्वरूप
948 . दान्तः – जितेन्द्रिय
949 . गतक्लम: – अवसाद रहित
श्रीनिवास: सदानन्दो विश्वमूर्तिर्महाप्रभु: ।
सहस्त्रशीर्षा पुरुष: सहस्त्राक्ष: सहस्त्रपात ।।132।।
950 . श्रीनिवास:- लक्ष्मी के निवास स्थान
951 . सदानन्दः – सदा आनंदमय
952 . विश्वमूर्तिः – विश्वरूप विग्रह वाले
953 . महाप्रभु:- सबके स्वामी
954 . सहस्त्रशीर्षा- हज़ार सर वाले
955 . पुरुष: – पुर अर्थात शरीर में शयन करने वाले
956 . सहस्त्राक्ष: – हजार नेत्र वाले
957 . सहस्त्रपात- हजार पद वाले
समस्तभुवनाधार: समस्तप्राणरक्षक: ।
समस्तसर्वभावज्ञो गोपिकाप्राणवल्लभः ।।133।।
958 . समस्तभुवनाधार:- समस्त लोकों के आधारस्वरूप
959 . समस्तप्राणरक्षक: – समग्र जीवों के प्राणों के रक्षक
960 . समस्तसर्वभावज्ञो- समस्त प्राणियों के सभी मनोभावों को जानने वाले
961 . गोपिकाप्राणवल्लभः – गोपिकाओं के प्राणों के रक्षक
नित्योत्सवो नित्यसौख्यो नित्यश्रीर्नित्यमंगल: ।
व्यूहार्चितो जगन्नाथ: श्रीवैकुण्ठपुराधिप: ।।134।।
962 . नित्योत्सवः- नित्य उत्सवमय
963 . नित्यसौख्यः – नित्य सुखस्वरूप
964 . नित्यश्रीः – नित्य शोभामय
965 . नित्यमंगल: – नित्य मंगलमय
966 . व्यूहार्चितः – मूर्ति में पूजित
967 . जगन्नाथ:- जगत के स्वामी
968 . श्रीवैकुण्ठपुराधिप:- वैकुंठपुरी के अधिपति
पूर्णानन्दघनीभूतो गोपवेषधरो हरि: ।
कलापकुसुमश्याम: कोमल: शान्तविग्रह: ।।135।।
969 . पूर्णानन्दघनीभूतः- पूर्ण आनंद के गहन स्वरूप
970 . गोपवेषधरः – गोप का वेष धारण करने वाले
971 . हरि:- पाप- तापों का हरण करने वाले
972 . कलापकुसुमश्याम:- मयूरपंख तथा अलसी के पुष्प के तुल्य श्याम वर्ण वाले
973 . कोमल:- कोमल प्रकृति वाले
974 . शान्तविग्रह:- शांतिमय विग्रह वाले
गोपाड़्गनावृतोsनन्तो वृन्दावनसमाश्रय: ।
वेणुवादरत: श्रेष्ठो देवानां हितकारक: ।।136।।
975 . गोपाड़्गनावृतः – गोपांगनाओं से आवृत
976 . अनन्तः – अपरिमित
977 . वृन्दावनसमाश्रय: – वृन्दावन में निवास करने वाले
978 . वेणुवादरत:- वंशी बजाने में तत्पर
979 . श्रेष्ठः- महान
980 . देवानां हितकारक:- देवताओं का हित करने वाले
बालक्रीडासमासक्तो नवनीतस्यं तस्कर: ।
गोपालकामिनीजारश्चोरजारशिखामणि: ।।137।।
981 . बालक्रीडासमासक्तः – गोप बालकों के साथ क्रीड़ा में आसक्त रहने वाले
982 . नवनीतस्यं तस्कर: – माखन की चोरी करने वाले
983 . गोपालकामिनीजारः – गोपांगनाओं के साथ प्रेमभाव रखने वाले
984 . चोरजारशिखामणि: – चोरी और प्रेम करने वालों में शिरोमणि
परंज्योति: पराकाश: परावास: परिस्फुट: ।
अष्टादशाक्षरो मन्त्रो व्यापको लोकपावन: ।।138।।
985 . परंज्योति:- परम कांति वाले
986 . पराकाश:- आकाश से भी परे
987 . परावास:- सर्वोत्तम निवास स्थान वाले
988 . परिस्फुट: – सर्वत्र दृश्यमान
989 . अष्टादशाक्षरो मंत्रः – अठारह अक्षरों वाले मंत्र स्वरूप
990 . व्यापकः – सर्वत्र विद्यमान
991 . लोकपावन: – समग्र लोकों को पवित्र करने वाले
सप्तकोटिमहामन्त्रशेखरो देवशेखर: ।
विज्ञानज्ञानसन्धानस्तेजोराशिर्जगत्पति: ।।139।।
992 . सप्तकोटिमहामन्त्रशेखरः – सात करोड़ महामन्त्रों में सर्वश्रेष्ठ
993 . देवशेखर:- देवताओं में श्रेष्ठ
994 . विज्ञानज्ञानसन्धानः – ज्ञान एवं विज्ञान के आधार
995 . तेजोराशिः – तेजपुंज
996 . जगत्पति:- संसार के स्वामी
भक्तलोकप्रसन्नात्मा भक्तमन्दारविग्रह: ।
भक्तदारिद्रयदमनो भक्तानां प्रीतिदायक: ।।140।।
997 . भक्तलोकप्रसन्नात्मा- भक्तजनों की आत्मा को प्रसन्न रखने वाले
998 . भक्तमन्दारविग्रह: – भक्तजनों के लिए कल्पवृक्षस्वरूप
999 . भक्तदारिद्रयदमनः – भक्तों के दैन्य भाव को दूर करने वाले
1000 . भक्तानां प्रीतिदायक:- भक्तों को प्रीति प्रदान करने वाले
भक्ताधीनमना: पूज्यो भक्तलोकशिवंकर: ।
भक्ताभीष्टप्रद: सर्वभक्ताघौघनिकृन्तन: ।।141।।
1001 . भक्ताधीनमना:- भक्तों के अधीन मन वाले
1002 . पूज्यः – पूजनीय
1003 . भक्तलोकशिवंकर: – भक्तों का कल्याण करने वाले
1004 . भक्ताभीष्टप्रद:- भक्तों की अभिलाषा को पूर्ण करने वाले
1005 . सर्वभक्ताघौघनिकृन्तन:- भक्तों के पाप समूह का नाश करने वाले
अपारकरुणासिन्धुर्भगवान भक्ततत्पर: ।।142।।
1006 . अपारकरुणासिन्धुः – अपार करुणा के समुद्र
1007 . भगवान- ऐश्वर्यशाली
1008 . भक्ततत्पर:- भक्तपरायण
इति श्री सम्मोहन तंत्रे पार्वतीश्वर संवादे श्री गोपाल सहस्रनाम स्तोत्रम सम्पूर्णम
इस प्रकार श्री सम्मोहन तंत्र के अंतर्गत पार्वती – ईश्वर संवाद में श्री गोपाल सहस्रनाम सम्पूर्ण हुआ ।
इति श्रीराधिकानाथसहस्त्रं नाम कीर्तितम ।
स्मरणात्पापराशीनां खण्डनं मृत्युनाशनम ।।143।।
वैष्णवानां प्रियकरं महारोगनिवारणम ।
ब्रह्महत्यासुरापानं परस्त्रीगमनं तथा ।।144।।
परद्रव्यापहरणं परद्वेषसमन्वितम ।
मानसं वाचिकं कायं यत्पापं पापसम्भवम ।।145।।
सहस्त्रनामपठनात्सर्व नश्यति तत्क्षणात ।
इस प्रकार यह श्री गोपाल सहस्रनाम स्तोत्र है, जिसका स्मरण करने मात्र से पाप समूहों का तथा मृत्यु का नाश हो जाता है । यह श्री गोपाल सहस्रनाम स्तोत्र विष्णु भक्तों का कल्याण करने वाला तथा महारोगों का निवारण करने वाला हैं । ब्रह्म हत्या , सुरापान , परस्त्रीगमन , दूसरे के द्रव्य का हरण , दूसरों से द्वेष , मन – वाणी – शरीर से कृत पाप तथा जिस किसी भी प्रकार से जो पाप होता है , वह सब इस सहस्रनाम के पढ़ने से उसी क्षण नष्ट हो जाता है ।
महादारिद्र्ययुक्तो यो वैष्णवो विष्णुभक्तिमान ।।146।।
कार्तिक्यां सम्पठेद्रात्रौ शतमष्टोत्तर क्रमात ।
पीताम्बरधरो धीमासुगन्धिपुष्पचन्दनै: ।।147।।
पुस्तकं पूजयित्वा तु नैवेद्यादिभिरेव च ।
राधाध्यानाड़िकतो धीरो वनमालाविभूषित: ।।148।।
शतमष्टोत्तरं देवि पठेन्नामसहस्त्रकम ।
जो वैष्णव महान दरिद्रता से युक्त हैं , उसे विष्णु भक्ति से संपन्न होकर कार्तिक महीने में रात्रि काल में इसका क्रम से 108 बार पाठ करना चाहिए । हे देवी! बुद्धिमान को चाहिए कि पीताम्बर धारण करके तथा वनमाला से विभूषित होकर गंध , पुष्प , चन्दन तथा नैवेद्य आदि से श्री गोपाल सहस्र नाम स्तोत्र पुस्तक की पूजा करके राधा के ध्यान में लीन होकर धैर्य पूर्वक इस सहस्रनाम का 108 बार पाठ करे।
चैत्रशुक्ले च कृष्णे च कुहूसंक्रान्तिवासरे ।।149।।
पठितव्यं प्रयत्नेन त्रौलोक्यं मोहयेत्क्षणात ।
तुलसीमालया युक्तो वैष्णवो भक्तित्पर: ।।150।।
रविवारे च शुक्रे च द्वादश्यां श्राद्धवासरे ।
ब्राह्मणं पूजयित्वा च भोजयित्वा विधानत: ।।151।।
य: पठेद्वैष्णवो नित्यं स याति हरिमन्दिरम ।
जो वैष्णव तुलसी माला धारण करके भक्तिपूर्वक रविवार , शुक्रवार , द्वादशी तिथि को अथवा श्राद्ध के दिन विधान के साथ ब्राह्मण का पूजन करके उन्हें भोजन कराकर इस गोपालसहस्रनाम का नित्य पाठ करता है , वह विष्णु लोक को प्राप्त करता है ।
कृष्णेनोक्तं राधिकायै मया प्रोक्तं पुरा शिवे ।।158।।
नारदाय मया प्रोक्तं नारदेन प्रकाशितम् ।
मया त्वयि वरारोहे प्रोक्तमेतत्सुदुर्लभम् ।।159।।
हे शिवे ! इसे पहले श्री कृष्ण ने राधिका से कहा था उसी को मैंने तुमसे कह दिया । इस रहस्य को मैंने नारद जी से कहा था और नारद जी ने इसका [ सम्पूर्ण संसार में ] प्रचार किया । हे वरारोहे ! इस अत्यंत दुर्लभ रहस्य को मैंने तुमसे कहा है ।
गोपनीयं प्रयत्नेन् न प्रकाश्यं कथंचन ।
शठाय पापिने चैव लम्पटाय विशेषत: ।।160।।
न दातव्यं न दातव्यं न दात्व्यं कदाचन ।
देयं शिष्याय शान्ताय विष्णुभक्तिरताय च ।।161।।
इस रहस्य को प्रयत्न पूर्वक गुप्त रखना चाहिए और किसी को भी प्रकट नहीं करना चाहिए । इसे किसी मूर्ख , पापी और विशेष रूप से लम्पट व्यक्ति कोकभी भी प्रदान नहीं करना चाहिए , अपितु शांत स्वभाव तथा विष्णु भक्ति से युक्त शिष्य को ही इसका उपदेश करना चाहिए ।
गोदानब्रह्मयज्ञादेर्वाजपेयशस्य च ।
अश्वमेधसहस्त्रस्य फलं पाठे भवेदध्रुवम् ।।162।।
इस सहस्रनाम के पढ़ने से गोदान , ब्रह्म यज्ञ आदि , सैंकड़ों वाजपेय एवं हजारों अश्वमेधों के करने का फल निश्चित रूप से प्राप्त होता है ।
एकादश्यां नर: स्नात्वा सुगन्धिद्रव्यतैलकै: ।
आहारं ब्राह्मणे दत्त्वा दक्षिणां स्वर्णभूषणम् ।।164।।
तत आरम्भकर्ताsसौ सर्व प्राप्नोति मानव: ।
शतावृत्तं सहस्त्रं च य: पठेद्वैष्णवो जन: ।।165।।
श्रीवृंदावनचन्द्रस्य प्रासादात्सर्वमाप्नुयात ।
सुगन्धित द्रव्यों का तैल लगाकर जो व्यक्ति एकादशी के दिन स्नान करके ब्राह्मण को भोजन कराकर दक्षिणा तथा सुवर्ण का आभूषण प्रदान करने के बाद गोपालसहस्रनामस्तोत्र पाठ का आरम्भ करता है वह सब कुछ प्राप्त कर लेता है । जो वैष्णव व्यक्ति इसकी 100 या 1000 बार पाठ करता है वह श्री वृन्दावन चंद्र भगवान् श्री कृष्ण की कृपा से सब कुछ प्राप्त कर लेता है ।
यदगृहे पुस्तकं देवि पूजितं चैव तिष्ठति ।।166।।
न मारी न च दुर्भिक्षं नोपसर्गभयं क्वचित ।
सर्पादि भूतयक्षाद्या नश्यन्ति नात्र संशय: ।।167।।
श्रीगोपालो महादेवि वसेत्तस्य गृहे सदा ।
गृहे यत्र सहस्त्रं च नाम्नां तिष्ठति पूजितम् ।।168।।
हे देवी ! जिस घर में इस सहस्रनाम स्तोत्र पुस्तक की नित्य पूजा होती है ; वह महामारी , दुर्भिक्ष तथा किसी प्रकार के उपद्रव का भय नहीं रहता और सर्प , भूत , यक्ष आदि नष्ट हो जाते हैं ; इसमें संशय नहीं है । हे महादेवी ! जिसके घर में इस सहस्रनाम स्तोत्र की नित्य पूजा होती रहती है , उसके घर में गोपाल श्रीकृष्ण सदा निवास करते हैं ।
Video Credits : Yogiraj Manoj
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