गुरु गोविंद दोऊँ खड़े,
काके लागूं पांय।
बलिहारी गुरु आपने,
गोविंद दियो बताय॥
काके लागूं पांय।
बलिहारी गुरु आपने,
गोविंद दियो बताय॥
अर्थ (Meaning in Hindi):
- गुरु गोविंद दोऊ खड़े – गुरु और गोविन्द (भगवान) दोनों एक साथ खड़े है
- काके लागूं पाँय – पहले किसके चरण-स्पर्श करें (प्रणाम करे)?
- बलिहारी गुरु – कबीरदासजी कहते है, पहले गुरु को प्रणाम करूँगा
- आपने गोविन्द दियो बताय – क्योंकि, आपने (गुरु ने) गोविंद तक पहुचने का मार्ग बताया है।
गुरु आज्ञा मानै नहीं,
चलै अटपटी चाल।
लोक वेद दोनों गए,
आए सिर पर काल॥
चलै अटपटी चाल।
लोक वेद दोनों गए,
आए सिर पर काल॥
- गुरु आज्ञा मानै नहीं – जो मनुष्य गुरु की आज्ञा नहीं मानता है,
- चलै अटपटी चाल – और गलत मार्ग पर चलता है
- लोक वेद दोनों गए – वह लोक (दुनिया) और वेद (धर्म) दोनों से ही पतित हो जाता है
- आए सिर पर काल – और दुःख और कष्टों से घिरा रहता है
गुरु बिन ज्ञान न उपजै,
गुरु बिन मिलै न मोष।
गुरु बिन लखै न सत्य को,
गुरु बिन मिटे न दोष॥
गुरु बिन मिलै न मोष।
गुरु बिन लखै न सत्य को,
गुरु बिन मिटे न दोष॥
- गुरु बिन ज्ञान न उपजै – गुरु के बिना ज्ञान मिलना कठिन है
- गुरु बिन मिलै न मोष – गुरु के बिना मोक्ष नहीं
- गुरु बिन लखै न सत्य को – गुरु के बिना सत्य को पह्चानना असंभव है
- गुरु बिन मिटे न दोष – गुरु बिना दोष का (मन के विकारों का) मिटना मुश्किल है
गुरु कुम्हार शिष कुंभ है,
गढ़ि गढ़ि काढ़े खोट।
अंतर हाथ सहार दै,
बाहर बाहै चोट॥
गढ़ि गढ़ि काढ़े खोट।
अंतर हाथ सहार दै,
बाहर बाहै चोट॥
- गुरु कुम्हार – गुरु कुम्हार के समान है
- शिष कुंभ है – शिष्य मिट्टी के घडे के समान है
- गढ़ि गढ़ि काढ़े खोट – गुरु कठोर अनुशासन किन्तु मन में प्रेम भावना रखते हुए शिष्य के खोट को (मन के विकारों को) दूर करते है
- अंतर हाथ सहार दै – जैसे कुम्हार घड़े के भीतर से हाथ का सहारा देता है
- बाहर बाहै चोट – और बाहर चोट मारकर घड़े को सुन्दर आकार देता है
गुरु पारस को अन्तरो,
जानत हैं सब संत।
वह लोहा कंचन करे,
ये करि लेय महंत॥
जानत हैं सब संत।
वह लोहा कंचन करे,
ये करि लेय महंत॥
- गुरु पारस को अन्तरो – गुरु और पारस पत्थर के अंतर को
- जानत हैं सब संत – सभी संत (विद्वान, ज्ञानीजन) भलीभाँति जानते हैं।
- वह लोहा कंचन करे – पारस पत्थर सिर्फ लोहे को सोना बनाता है
- ये करि लेय महंत – किन्तु गुरु शिष्य को ज्ञान की शिक्षा देकर अपने समान गुनी और महान बना लेते है।
गुरु समान दाता नहीं,
याचक सीष समान।
तीन लोक की सम्पदा,
सो गुरु दिन्ही दान॥
याचक सीष समान।
तीन लोक की सम्पदा,
सो गुरु दिन्ही दान॥
अर्थ (Meaning in Hindi):
- गुरु समान दाता नहीं – गुरु के समान कोई दाता (दानी) नहीं है
- याचक सीष समान – शिष्य के समान कोई याचक (माँगनेवाला) नहीं है
- तीन लोक की सम्पदा – ज्ञान रूपी अनमोल संपत्ति, जो तीनो लोको की संपत्ति से भी बढ़कर है
- सो गुरु दिन्ही दान – शिष्य के मांगने से गुरु उसे यह (ज्ञान रूपी सम्पदा) दान में दे देते है
गुरु शरणगति छाडि के,
करै भरोसा और।
सुख संपती को कह चली,
नहीं नरक में ठौर॥
करै भरोसा और।
सुख संपती को कह चली,
नहीं नरक में ठौर॥
- गुरु शरणगति छाडि के – जो व्यक्ति सतगुरु की शरण छोड़कर और उनके बत्ताए मार्ग पर न चलकर
- करै भरोसा और – अन्य बातो में विश्वास करता है
- सुख संपती को कह चली – उसे जीवन में दुखो का सामना करना पड़ता है और
- नहीं नरक में ठौर – उसे नरक में भी जगह नहीं मिलती
कबीर माया मोहिनी,
जैसी मीठी खांड।
सतगुरु की किरपा भई,
नहीं तौ करती भांड॥
जैसी मीठी खांड।
सतगुरु की किरपा भई,
नहीं तौ करती भांड॥
- कबीर माया मोहिनी – माया (संसार का आकर्षण) बहुत ही मोहिनी है, लुभावनी है
- जैसी मीठी खांड – जैसे मीठी शक्कर या मीठी मिसरी
- सतगुरु की किरपा भई – सतगुरु की कृपा हो गयी (इसलिए माया के इस मोहिनी रूप से बच गया)
- नहीं तौ करती भांड – नहीं तो यह मुझे भांड बना देती। (भांड – विदूषक, मसख़रा, गंवार, उजड्ड)
यह तन विष की बेलरी,
गुरु अमृत की खान।
सीस दिये जो गुरु मिलै,
तो भी सस्ता जान॥
गुरु अमृत की खान।
सीस दिये जो गुरु मिलै,
तो भी सस्ता जान॥
- यह तन विष की बेलरी – यह शरीर सांसारिक विषयो की बेल है।
- गुरु अमृत की खान – सतगुरु विषय और विकारों से रहित है इसलिए वे अमृत की खान है
- सीस दिये जो गुर मिलै – ऐसे सतगुरु यदि शीश (सर्वस्व) अर्पण करने पर भी मिल जाए
- तो भी सस्ता जान – तो भी यह सौदा सस्ता ही समझना चाहिए।
सतगुरू की महिमा अनंत,
अनंत किया उपकार।
लोचन अनंत उघाडिया,
अनंत दिखावणहार॥
अनंत किया उपकार।
लोचन अनंत उघाडिया,
अनंत दिखावणहार॥
- सतगुरु महिमा अनंत है – सतगुरु की महिमा अनंत हैं
- अनंत किया उपकार – उन्होंने मुझ पर अनंत उपकार किये है
- लोचन अनंत उघारिया – उन्होंने मेरे ज्ञान के चक्षु (अनन्त लोचन) खोल दिए
- अनंत दिखावन हार – और मुझे अनंत (ईश्वर) के दर्शन करा दिए।
सब धरती कागद करूँ,
लिखनी सब बनराय।
सात समुद्र की मसि करूँ,
गुरु गुण लिखा न जाय॥
लिखनी सब बनराय।
सात समुद्र की मसि करूँ,
गुरु गुण लिखा न जाय॥
अर्थ (Meaning in Hindi):
- सब धरती कागद करूं – सारी धरती को कागज बना लिया जाए
- लिखनी सब बनराय – सब वनों की (जंगलो की) लकडियो को कलम बना ली जाए
- सात समुद्र का मसि करूं – सात समुद्रों को स्याही बना ली जाए
- गुरु गुण लिखा न जाय – तो भी गुरु के गुण लिखे नहीं जा सकते (गुरु की महिमा का वर्णन नहीं किया जा सकता)। क्योंकि, गुरु की महिमा अपरंपार है।
गुरु सों ज्ञान जु लीजिए,
सीस दीजिए दान।
बहुतक भोंदू बह गए,
राखि जीव अभिमान॥
सीस दीजिए दान।
बहुतक भोंदू बह गए,
राखि जीव अभिमान॥
- गुरु सों ज्ञान जु लीजिए – गुरु से ज्ञान पाने के लिए
- सीस दीजिए दान – तन और मन पूर्ण श्रद्धा से गुरु के चरणों में समर्पित कर दो।
- राखि जीव अभिमान – जो अपने तन, मन और धन का अभिमान नहीं छोड़ पाते है
- बहुतक भोंदु बहि गये – ऐसे कितने ही मूर्ख (भोंदु) और अभिमानी लोग संसार के माया के प्रवाह में बह जाते है। वे संसार के माया जाल में उलझ कर रह जाते है और उद्धार से वंचित रह जाते है।
गुरु मूरति गति चंद्रमा,
सेवक नैन चकोर।
आठ पहर निरखत रहे,
गुरु मूरति की ओर॥
सेवक नैन चकोर।
आठ पहर निरखत रहे,
गुरु मूरति की ओर॥
- गुरु मूरति गति चंद्रमा – गुरु की मूर्ति जैसे चन्द्रमा और
- सेवक नैन चकोर – शिष्य के नेत्र जैसे चकोर पक्षी। (चकोर पक्षी चन्द्रमा को निरंतर निहारता रहता है, वैसे ही हमें)
- गुरु मूरति की ओर – गुरु ध्यान में और गुरु भक्ति में
- आठ पहर निरखत रहे – आठो पहर रत रहना चाहिए। (निरखत, निरखना – ध्यान से देखना)
गुरु मुरति आगे खडी,
दुतिया भेद कछु नाहि।
उन्ही कूं परनाम करि,
सकल तिमिर मिटी जाहिं॥
गुरु की आज्ञा आवै,
गुरु की आज्ञा जाय।
कहैं कबीर सो संत हैं,
आवागमन नशाय॥
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