॥ दोहा ॥
करूं वंदना गुरू चरण रज, हृदय राखी श्री राम।
मातृ पितृ चरण नमन करूँ, प्रभु कीर्ति करूँ बखान॥
तव कीर्ति आदि अनंत है, विष्णु अवतार भिषक महान।
हृदय में आकर विराजिए, जय धन्वंतरि भगवान॥
॥ चौपाई ॥
जय धनवंतरि जय रोगारी, सुनलो प्रभु तुम अरज हमारी।
तुम्हारी महिमा सब जन गावें, सकल साधुजन हिय हरषावे।
शाश्वत है आयुर्वेद विज्ञाना, तुम्हरी कृपा से सब जग जाना।
कथा अनोखी सुनी प्रकाशा, वेदों में ज्यूँ लिखी ऋषि व्यासा।
कुपित भयऊ तब ऋषि दुर्वासा, दीन्हा सब देवन को श्रापा।
श्री हीन भये सब तबहि, दर दर भटके हुए दरिद्र हि।
सकल मिलत गए ब्रह्मा लोका, ब्रह्म विलोकत भये हुँ अशोका।
परम पिता ने युक्ति विचारी, सकल समीप गए त्रिपुरारी।
उमापति संग सकल पधारे, रमा पति के चरण पखारे।
आपकी माया आप ही जाने, सकल बद्धकर खड़े पयाने।
इक उपाय है आप हि बोले, सकल औषध सिंधु में घोंले।
क्षीर सिंधु में औषध डारी, तनिक हंसे प्रभु लीला धारी।
मंदराचल की मथानी बनाई, दानवो से अगुवाई कराई।
देव जनो को पीछे लगाया, तल पृष्ठ को स्वयं हाथ लगाया।
मंथन हुआ भयंकर भारी, तब जन्मे प्रभु लीलाधारी।
अंश अवतार तब आप ही लीन्हा, धनवंतरि तेहि नामहि दीन्हा।
सौम्य चतुर्भुज रूप बनाया, स्तवन सब देवों ने गाया।
अमृत कलश लिए एक भुजा, आयुर्वेद औषध कर दूजा।
जन्म कथा है बड़ी निराली, सिंधु में उपजे घृत ज्यों मथानी।
सकल देवन को दीन्ही कान्ति, अमर वैभव से मिटी अशांति।
कल्पवृक्ष के आप है सहोदर, जीव जंतु के आप है सहचर।
तुम्हरी कृपा से आरोग्य पावा, सुदृढ़ वपु अरु ज्ञान बढ़ावा।
देव भिषक अश्विनी कुमारा, स्तुति करत सब भिषक परिवारा।
धर्म अर्थ काम अरु मोक्षा, आरोग्य है सर्वोत्तम शिक्षा।
तुम्हरी कृपा से धन्व राजा, बना तपस्वी नर भू राजा।
तनय बन धन्व घर आये, अब्ज रूप धनवंतरि कहलाये।
सकल ज्ञान कौशिक ऋषि पाये, कौशिक पौत्र सुश्रुत कहलाये।
आठ अंग में किया विभाजन, विविध रूप में गावें सज्जन।
अथर्व वेद से विग्रह कीन्हा, आयुर्वेद नाम तेहि दीन्हा।
काय, बाल, ग्रह, उर्ध्वांग चिकित्सा, शल्य, जरा, दृष्ट्र, वाजी सा।
माधव निदान, चरक चिकित्सा, कश्यप बाल, शल्य सुश्रुता।
जय अष्टांग जय चरक संहिता, जय माधव जय सुश्रुत संहिता।
आप है सब रोगों के शत्रु, उदर नेत्र मष्तिक अरु जत्रु।
सकल औषध में है व्यापी, भिषक मित्र आतुर के साथी।
विश्वामित्र ब्रह्म ऋषि ज्ञान, सकल औषध ज्ञान बखानि।
भारद्वाज ऋषि ने भी गाया, सकल ज्ञान शिष्यों को सुनाया।
काय चिकित्सा बनी एक शाखा, जग में फहरी शल्य पताका।
कौशिक कुल में जन्मा दासा, भिषकवर नाम वेद प्रकाशा।
धन्वंतरि का लिखा चालीसा, नित्य गावे होवे वाजी सा।
जो कोई इसको नित्य ध्यावे, बल वैभव सम्पन्न तन पावें।
॥ दोहा ॥
रोग शोक सन्ताप हरण, अमृत कलश लिए हाथ।
जरा व्याधि मद लोभ मोह, हरण करो भिषक नाथ॥
॥ Doha ॥
Karun vandana guru charan raj, hriday rakhi Shree Ram.
Maatru pitr charan naman karun, Prabhu kirti karun bakhaan.
Tav kirti aadi anant hai, Vishnu avataar bhishak mahaan.
Hriday mein aakar virajiye, Jai Dhanvantari Bhagwan.
॥ Chaupai ॥
Jai Dhanvantari Jai Rogari, sunlo Prabhu tum arj hamari.
Tumhari mahima sab jan gaavein, sakal sadhujan hiy harshaavein.
Shashwat hai Ayurveda vigyana, tumhari kripa se sab jag jaana.
Katha anokhi suni prakasha, vedon mein jyun likhi Rishi Vyaasa.
Kupit bhayau tab Rishi Durvaasa, dinha sab devon ko shraapa.
Shri heen bhaye sab tabhi, dar dar bhatke hue daridra hi.
Sakal milat gaye Brahma loka, Brahma vilokat bhaye hun asoka.
Param Pita ne yukti vichaari, sakal sameep gaye Tripuraari.
Umapati sang sakal padhaare, Rama pati ke charan pakhaare.
Aapki maya aap hi jaane, sakal baddhkar khade payaane.
Ik upaay hai aap hi bole, sakal aushadh sindhu mein ghole.
Ksheer sindhu mein aushadh daari, tanik hanse Prabhu leela dhaari.
Mandarachal ki mathani banaayi, danavo se aguvayi karayi.
Dev janon ko peechhe lagaya, tal prishth ko swayam haath lagaya.
Manthan hua bhayankar bhaari, tab janme Prabhu leelaadhaari.
Ansh avataar tab aap hi leenha, Dhanvantari tehi naamhi deenha.
Saumya chaturbhuja roop banaya, stavan sab devon ne gaaya.
Amrit kalash liye ek bhuja, Ayurveda aushadh kar dooja.
Janm katha hai badi niraali, sindhu mein upje ghrit jyon mathani.
Sakal devon ko dinhi kaanti, amar vaibhav se miti ashanti.
Kalpavriksha ke aap hai sahodhar, jeev jantu ke aap hai sahchar.
Tumhari kripa se aarogya paawa, sudridha vapu aru gyaan badhaawa.
Dev bhishak Ashwini Kumara, stuti karat sab bhishak parivara.
Dharm arth kaam aru moksha, aarogya hai sarvottam shiksha.
Tumhari kripa se Dhanv Raja, bana tapasvi nar bhoo raja.
Tanay ban Dhanv ghar aaye, abj roop Dhanvantari kahlaaye.
Sakal gyaan Kaushik Rishi paaye, Kaushik poutra Sushrut kahlaaye.
Aath ang mein kiya vibhajan, vivid roop mein gaavein sajjan.
Atharv ved se vigrah keenha, Ayurveda naam tehi dinha.
Kaay, baal, grah, urdhvaang chikitsa, shalya, jara, drishti, vaaji sa.
Madhav nidhaan, Charak chikitsa, Kashyap baal, shalya Sushruta.
Jai Ashtang Jai Charak Samhita, Jai Madhav Jai Sushrut Samhita.
Aap hai sab rogon ke shatru, udar netra mastik aru jatru.
Sakal aushadh mein hai vyaapi, bhishak mitra aatur ke saathi.
Vishwamitra Brahma Rishi gyaan, sakal aushadh gyaan bakhaani.
Bharadwaj Rishi ne bhi gaaya, sakal gyaan shishyoon ko sunaya.
Kaay chikitsa bani ek shaakha, jag mein phahri shalya pataka.
Kaushik kul mein janma daasa, bhishakvar naam ved prakasha.
Dhanvantari ka likha chalisa, nitya gaave hove vaaji sa.
Jo koi isko nitya dhyaave, bal vaibhav sampann tan paave.
॥ Doha ॥
Rog shok santap haran, amrit kalash liye haath.
Jara vyadhi mad lobh moh, haran karo bhishak naath.
॥ दोहा ॥
करूं वंदना गुरू चरण रज, हृदय राखी श्री राम।
मातृ पितृ चरण नमन करूँ, प्रभु कीर्ति करूँ बखान॥
तव कीर्ति आदि अनंत है, विष्णु अवतार भिषक महान।
हृदय में आकर विराजिए, जय धन्वंतरि भगवान॥
मैंगुरुओंके चरणों को धोकर और उनकी वंदना कर, श्रीराम को अपने हृदय में बसाकर तथा माता-पिता के चरणों को नमस्कार कर प्रभु धन्वंतरी जी की चालीसा के जरिये उनकी महिमा का वर्णन करता हूँ। भगवान धन्वंतरि का यश इस सृष्टि में हर जगह है जिसका कोई अंत नहीं है। वे साक्षात श्रीहरि के अवतार हैं। हे धन्वंतरि भगवान!! अब आप मेरे हृदय में वास कीजिये।
॥ चौपाई ॥
जय धनवंतरि जय रोगारी, सुनलो प्रभु तुम अरज हमारी।
तुम्हारी महिमा सब जन गावें, सकल साधुजन हिय हरषावे।
शाश्वत है आयुर्वेद विज्ञाना, तुम्हरी कृपा से सब जग जाना।
कथा अनोखी सुनी प्रकाशा, वेदों में ज्यूँ लिखी ऋषि व्यासा।
धन्वंतरि भगवान की जय हो। जो हमारे रोगों का निवारण कर देते हैं, उनकी जय हो। अब आप हमारी प्रार्थना को भी सुन लीजिये। आपकी महिमा का वर्णन तो सभी करते हैं और साधु भी आपको देखकर हर्षित होते हैं। आयुर्वेद का विज्ञान हमेशा रहने वाला है और आपकी कृपा से ही हमें यह ज्ञान प्राप्त हुआ था। आपकी कथा बहुत ही अद्भुत है जिसे महर्षि वेदव्यास ने वेदों में लिखा है।
कुपित भयऊ तब ऋषि दुर्वासा, दीन्हा सब देवन को श्रापा।
श्री हीन भये सब तबहि, दर दर भटके हुए दरिद्र हि।
सकल मिलत गए ब्रह्मा लोका, ब्रह्म विलोकत भये हुँ अशोका।
परम पिता ने युक्ति विचारी, सकल समीप गए त्रिपुरारी।
एक बार देवताओं के कृत्य से ऋषि दुर्वासा बहुत क्रोधित हो गए थे और उसी क्रोध में उन्होंने देवताओं को श्राप दे दिया था। सभी देवता लक्ष्मी रहित हो गए थे और निर्धन होकर इधर-उधर भटक रहे थे। अपनी दुविधा को लेकर सभी देवता ब्रह्मलोक में ब्रह्मा जी से मिलने गए। तब ब्रह्मा जी ने इस समस्या के समाधान के लिए त्रिपुरारी (महादेव) के पास जाने को कहा।
उमापति संग सकल पधारे, रमा पति के चरण पखारे।
आपकी माया आप ही जाने, सकल बद्धकर खड़े पयाने।
इक उपाय है आप हि बोले, सकल औषध सिंधु में घोंले।
क्षीर सिंधु में औषध डारी, तनिक हंसे प्रभु लीला धारी।
इसके बाद सभी देवता ब्रह्मा जी व उमापति (शिव जी) के साथ क्षीर सागर में रमापति (भगवान विष्णु) के पास पहुंचे और उनके चरणों की वंदना की। देवताओं ने मायापति (विष्णु) की माया का वर्णन किया और समस्या का समाधान करने को कहा। यह सुनकर श्रीहरि ने इसका उपाय बताया कि इसके लिए सागर में औषधि मिली हुई है। श्रीहरि ने ही क्षीर सागर में औषधि घोली थी और यह देखकर वे अपनी ही लीला पर हंस पड़े।
मंदराचल की मथानी बनाई, दानवो से अगुवाई कराई।
देव जनो को पीछे लगाया, तल पृष्ठ को स्वयं हाथ लगाया।
मंथन हुआ भयंकर भारी, तब जन्मे प्रभु लीलाधारी।
अंश अवतार तब आप ही लीन्हा, धनवंतरि तेहि नामहि दीन्हा।
श्रीहरि के आदेश पर मंदराचल पर्वत की मथानी बनायी गयी और शेषनाग को रस्सी की जगह उपयोग में लाया गया। स्वयं भगवान श्रीहरि ने कच्छप अवतार लेकर उस पर्वत को आधार दिया। दानवों को शेषनाग के मुख की ओर जबकि देवताओं को उसकी पूँछ की ओर लगाया गया। बहुत दिनों तक समुंद्र मंथन का यह कार्य चलता रहा और अंत में उसमें से लीलाधारी प्रभु प्रकट हुए। वह श्रीहरि का ही अंशावतार थे जिनका नाम धन्वंतरि रखा गया।
सौम्य चतुर्भुज रूप बनाया, स्तवन सब देवों ने गाया।
अमृत कलश लिए एक भुजा, आयुर्वेद औषध कर दूजा।
जन्म कथा है बड़ी निराली, सिंधु में उपजे घृत ज्यों मथानी।
सकल देवन को दीन्ही कान्ति, अमर वैभव से मिटी अशांति।
भगवान धन्वंतरि चार भुजाएं व सौम्य रूप लिए हुए थे। सभी देवताओं ने उनके नाम की जय-जयकार की। उनके एक हाथ में अमृत कलश तो दूसरे हाथ में आयुर्वेद की औषधियों का ज्ञान था। भगवान धन्वंतरी की जन्मकथा तो बहुत ही निराली है जो समुंद्र मंथन से प्रकट हुए थे। उन्होंने सभी देवताओं को अमृतपान करवा कर उन्हें अमरता प्रदान की जिससे उसके शरीर में तेज व मन में शांति का अनुभव हुआ।
कल्पवृक्ष के आप है सहोदर, जीव जंतु के आप है सहचर।
तुम्हरी कृपा से आरोग्य पावा, सुदृढ़ वपु अरु ज्ञान बढ़ावा।
देव भिषक अश्विनी कुमारा, स्तुति करत सब भिषक परिवारा।
धर्म अर्थ काम अरु मोक्षा, आरोग्य है सर्वोत्तम शिक्षा।
कल्पवृक्ष जो अत्यधिक औषधीय गुण लिए होता है, आप उसके भाई हैं। आप सभी तरह के जीव-जंतुओं के सहायक हैं। आपकी कृपा से ही हम स्वस्थ रहते हैं और हमारा शरीर शक्तिशाली बनता है। देवताओं के वैद्य अश्विनी कुमार, अपने परिवार सहित आपकी आराधना करते हैं। धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष में सर्वोत्तम शिक्षा आरोग्य रहने की ही है क्योंकि यदि शरीर ही स्वस्थ नहीं रहेगा तो हम बाकि कुछ भी नहीं कर पाएंगे।
तुम्हरी कृपा से धन्व राजा, बना तपस्वी नर भू राजा।
तनय बन धन्व घर आये, अब्ज रूप धनवंतरि कहलाये।
सकल ज्ञान कौशिक ऋषि पाये, कौशिक पौत्र सुश्रुत कहलाये।
आठ अंग में किया विभाजन, विविध रूप में गावें सज्जन।
आपकी कृपा से तो धन-धान्य से संपन्न राजा भी तपस्वी बन जाता है और संपूर्ण भूमि पर राज करता है। शरीर स्वस्थ होने से घर धन-धान्य से भरा रहता है और उस घर में कमल रूप में भगवान धन्वंतरी प्रवेश करते हैं। धन्वंतरि भगवान की कृपा से कौशिक ऋषि को आयुर्वेद का संपूर्ण ज्ञान मिला और उन्हीं कौशिक के पौत्र सुश्रुत थे। सुश्रुत जी ने आयुर्वेद का आठ भागों में विभाजन किया और उसे आमजन को उपलब्ध करवाया।
अथर्व वेद से विग्रह कीन्हा, आयुर्वेद नाम तेहि दीन्हा।
काय, बाल, ग्रह, उर्ध्वांग चिकित्सा, शल्य, जरा, दृष्ट्र, वाजी सा।
माधव निदान, चरक चिकित्सा, कश्यप बाल, शल्य सुश्रुता।
जय अष्टांग जय चरक संहिता, जय माधव जय सुश्रुत संहिता।
आयुर्वेद के ज्ञान को अथर्ववेद में लिखा हुआ था जिसे अलग कर आपने उसे आयुर्वेद नाम दिया। आयुर्वेद में शरीर, बाल, ग्रह, उर्ध्वांग, शल्य, जरा, दृष्ट्र, वाजी इत्यादि की चिकित्सा का वर्णन मिलता है। माधव निदान, चरक चिकित्सा, कश्यप बाल, शल्य सुश्रुत सभी उसी के ही अंग हैं। अष्टांग, चरक संहिता, माधव व सुश्रुत संहिता सभी की जय हो जिन्होंने आयुर्वेद को फैलाने का कार्य कर मनुष्य जाति का कल्याण किया।
आप है सब रोगों के शत्रु, उदर नेत्र मष्तिक अरु जत्रु।
सकल औषध में है व्यापी, भिषक मित्र आतुर के साथी।
विश्वामित्र ब्रह्म ऋषि ज्ञान, सकल औषध ज्ञान बखानि।
भारद्वाज ऋषि ने भी गाया, सकल ज्ञान शिष्यों को सुनाया।
भगवान धन्वंतरी सभी तरह के रोगों के शत्रु हैं फिर चाहे वह पेट, आँख, मस्तिष्क, हड्डियों इत्यादि से संबंधित हो। आयुर्वेद की औषधियों में इन सभी का उपचार है और वैद्य हमारा उपचार इसी की सहायता से करता है। विश्वामित्र जो कि ब्रह्मर्षि हैं, उन्होंने भी भगवान धन्वंतरी जी के द्वारा दिए गए औषधीय ज्ञान का वर्णन किया है। भारद्वाज ऋषि भी उनके ज्ञान का वर्णन करते हैं और अपने शिष्यों को उसके बारे में बताते हैं।
काय चिकित्सा बनी एक शाखा, जग में फहरी शल्य पताका।
कौशिक कुल में जन्मा दासा, भिषकवर नाम वेद प्रकाशा।
धन्वंतरि का लिखा चालीसा, नित्य गावे होवे वाजी सा।
जो कोई इसको नित्य ध्यावे, बल वैभव सम्पन्न तन पावें।
गुरुकुलों में काय चिकित्सा को एक अलग विषय मानकर उसकी एक शाखा बनायी गयी और इसी के कारण ही संपूर्ण विश्व को शल्य चिकित्सा का ज्ञान हुआ। कौशिक के कुल में जन्मे वैद्यों ने संपूर्ण विश्व में आयुर्वेद का ज्ञान बढ़ाया। जो भी धन्वंतरि चालीसा को लिखता है या उसका जाप करता है, वह स्वस्थ काया वाला हो जाता है। जो कोई भी धन्वंतरी चालीसा का पाठ करता है, उसका शरीर बलवान व शक्तिशाली बनता है।
॥ दोहा ॥
रोग शोक सन्ताप हरण, अमृत कलश लिए हाथ।
जरा व्याधि मद लोभ मोह, हरण करो भिषक नाथ॥
इस सृष्टि के रोग, शोक व दुखों को हरने के लिए भगवान धन्वंतरी अपने साथ अमृत कलश लेकर समुंद्र में से निकले थे। हे भगवान धन्वंतरि!! अब आप हमारे रोग, संकट, अहंकार, कामना, मोह इत्यादि को दूर कर दीजिये।
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